परम वैभव की संकल्पना

 परम वैभव की संकल्पना

गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने के बाद एक बार टोक्यो विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर वहां गए थे परन्तु उनके कार्यक्रम का वहां के छात्रों ने बहिष्कार कर दिया, पूछने पर कहा की गुलाम देश के श्रेष्ठ तत्वों को सुनने में हमें कोई दिलचस्पी नहीं है क्यूंकि यदि ये इतने ही श्रेष्ठ हैं तो फिर ये परतंत्र क्यों हैं?अतः यदि हमारे विचारों को मान्यता विश्व में दिलानी है तो हमें सही अर्थों में स्वतंत्र होना ही पड़ेगा |

 स्वतंत्र यानि ‘स्व’ का तंत्र- भारत जिन तंत्रों, व्यवस्थाओं के आधार पर चलता है (शिक्षा, अर्थ, प्रशासन, स्वास्थ्य,सुरक्षा, न्याय, व्यापर, उद्योग, कृषि, विकास आदि) और उन्नति करता है , वे सभी भारत के तत्वज्ञान, विचार प्रणाली, जीवन- विश्व- निसर्ग दृष्टि पर आधारित हो |अंग्रेजों ने योजनापूर्वक एक षड्यंत्र के तहत Denationalisation, Desocialisation and Dehinduisation of Hindu society कर दिया था| इसलिए सही अर्थों में १५ अगस्त को हम केवल स्वाधीन मात्र हुए स्वतंत्र नहीं| भारत की प्रगति भारत के ‘स्व’ के आधार पर ही होगी | ‘स्व’ यानि भारत की पहचान- इसमें भारत का इतिहास, महापुरुष, मान्यताएं, परम्पराएं,आकांक्षायें  स्वप्न इत्यादि के अलावा भारत का तत्व ज्ञान, विचार प्रणाली, जीवन दृष्टि, विश्व दृष्टि, निसर्ग दृष्टि इत्यादि भी समाहित है| भारत में इस सबका मूल आधार अध्यात्म है| अतः जब हम भारत के परम वैभव के बारे में विचार करते हैं तो इसका आधार अध्यात्म यानि धर्म ही है, ध्यान रहे धर्म रिलिजन, पंथ या संप्रदाय नहीं है|

अंग्रेजों के शासन काल ने हमारी बुद्धि का परतंत्रीकरण Colonisation of Mind कर दिया, इसके अब Decolonisation व Reculturisation की जरुरत है |Decolonized व Reculturized Mind जब होगा तभी हम तंत्र का परिवर्तन भी कर पाएंगे और उस परिवर्तित तंत्र का सही प्रकार से क्रियान्वयन भी | राजनितिक स्वतंत्रता के बाद अभी हमें भारत के ‘स्व के आधार पर आर्थिक, सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त करनी बाकी है |

आर्थिक स्वतंत्रता  यानि समाज के सब लोगों को उनकी इच्छा अनुसार काम करने का अवसर मिले, उसके लिए अपेक्षित योग्यता वे प्राप्त कर सकें तथा अपने परिवार की सभी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम बनें|आर्थिक स्वतंत्रता के अंतर्गत समाज में अधिकतम आय व न्यूनतम आय की अधिकतम सीमा तय कर तदुनुरूप उसकी व्यवस्था बनाना भी आवश्यक है|

सामाजिक स्वतंत्रता- यानि बिना किसी भेदभाव के ( लिंग, जाति, भाषा, रंग, आय, स्थान, भोजन, वेश आदि) के सबको अपनी अपनी उन्नति करने के लिए सामान अवसर उपलब्ध हों ताकि हम सब भेदरहित, समरसता अधिष्ठित समाज व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त कर सकें|

इस सबके लिए हमारी पुरानी व्यवस्थाओं में युगानुकुल परिवर्तन करने की हमारी सिद्धता चाहिए| भारत के तंत्र की एक बड़ी विशेषता है भारतीय समाज का जीवन शासक निर्भर न होकर स्वतः पर निर्भर है| भारत में केवल शासन, प्रशासन, बाह्य व आतंरिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था, विदेशनीति, उच्च स्तर पर न्याय आदि तंत्र ही शासक निर्भर रहा है, शेष सभी तंत्र समाज निर्भर रहे हैं- यह भारत की विकास यात्रा में ध्यान रखने की आवश्यकता है| शासन की भूमिका इन क्षेत्रों में नियामक,प्रोत्साहक, सरंक्षक व कठिन समय में सहायक की ही होती है|

➢ शासक निर्भर तंत्र- 

भारतीय चिंतन में विकेंद्रीकरण को अत्यंत महत्त्व दिया जाता रहा है| भारतीय शासन पद्धिति में सत्ता का अधिकार नीचे की इकाई को सौंपा गया है,अतः परम वैभवी भारत में ग्राम स्वराज्य को सही अर्थों में क्रियान्वन करना होगा| हमारे यहाँ प्रत्येक छोटी पहचान अपने से बड़ी पहचान के अधीन होती है| कहा भी गया है  Government that governs least is the Best.

अभी तक की हमारी यात्रा में हमने अनेकों पड़ाव पार किये हैं, जैसे- बजट प्रस्तुत करने का समय,न्याय के कानूनों को भारतीय अवधारणा के आधार पर लागु करेने के प्रयास, शिक्षा के तंत्र को ‘स्वआधारित करने के लिए लायी गयी राष्ट्रिय शिक्षा नीति-२०२० आदि | लेकिन अभी भी अनेकों परम्पराओं को बदलना होगा- उदहारण के लिए- बड़ों को आदर व कृतज्ञता देने की हमारी परंपरा का अनुसरण करते हुए संसद व विधानसभाओं में राष्ट्रपति/ राज्यपाल के अभिभाषण को सर्वसम्मति से पारित करना, चुनावी प्रक्रिया को धनबल,बहुबल से मुक्त रना, समाज की विविधताओं को भेद के रूप में दुरूपयोग करना बंद करना, चुनावी वादोंघोषणापत्रों में अत्तिरंजित, समाज विरोधी, देश की अखंडता को खंडित करने वाले आश्वासनों पर प्रतिबन्ध, कर लेने की प्रक्रिया का सरलीकरणआदि | विकसित भारत में हम राम राज्य की कल्पना को सार्थक करते हुए अपराध मुक्त भारत बनाने हेतु प्रजा का सरंक्षण करने वाली आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था ड़ी करनी होगी | साथ ही हम पर किसी को आक्रमण करने का साहस नहीं हो ऐसी अभेद्य सैन्य शक्ति तथा गुप्तचर व्यवस्था एक परम वैभव भारत के लिए अपरिहार्य है|सुरक्षा में लगे हुए सभी बंधुओं के प्रति समाज में आदर व सम्मान का भाव निर्मित हो तथा सुरक्षा में समाज का भी योगदान हो, इस निमित्त नागरिक सुरक्षा प्रशिक्षण सभी के लिए अनवरी किया जायेगा| प्रशान का समाज से सहज व सत्ता से निडर संवाद, उस अनुरूप उनकी प्रशिक्षण व्यवस्था में बदलाव,स्थानीय भाषा में संवाद करने की सहजता निर्माण करना एक लोकहितैषी, लोकाभिमुख शासन के लिए आवश्यक तत्व है|

हमारी परंपरा बड़े लोगों द्वारा स्वयं का उदहारण प्रस्तुत करने की है तो भारत में न्यायधीशों के लिए न्यायालयों में My Lordship कहने की पद्धिति क्यों, यह विचार करना पड़ेगा| सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायमूर्ति श्री एस अब्दुल नजीर जी का कहना है- भारत की न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण करने के लिए हमें याज्ञवल्क्य,कात्यायन, बृहस्पति, नारद, कौटिल्य जैसे अनेकों श्रेष्ठ पूर्वजों से सीखने की आवश्यकता है|

सेवानिवृत न्यायमूर्ति एस. वी.रमन्ना जी भी कहते हैं- “वर्तमान भारत की न्याय प्रणाली को पहले की तरह हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत से सुसंगत बनाना है यानि प्राचीन भारत की न्याय प्रणाली में कालसुसंगत परिवर्तन करते हुए वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप करना है |”

हमारी विदेश नीति हमारी विश्व दृष्टि पर आधारित हो तथा देश व देश के लोगों का हित साधने वाली होनी चाहिए| हमारी दृष्टि  ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ‘स्वदेशो भुवनत्रयम’, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः ‘ की है | विदेशों में रहनेवाले भारतीय भारत के सांस्कृतिक राजदूत बनेंऐसा वातावरण हमें बनाना होगा|वैश्वीकरण का नाम लेकर विकसित देश अन्य देशों पर आर्थिक शिकंजा कस रहे हैं| अतः पर्यावरण और आर्थिक संप्रभुत्ता का सरंक्षण करते हुए भी विकासशील व अविकसित देशों का विकास हो सकता है- ऐसे सफल प्रयोग भारत को दिखाने होंगे|

➢ समाज निर्भर तंत्र- भौतिक उन्नति से सम्बंधित 

अर्थ जगत, उद्योग, व्यापार स्वावलंबित, स्वदेशी भाव को धारण किये हों तथा विज्ञान, प्राद्योगिक, कृषि आदि समाज निर्भर व भारतीय चिंतन पर आधारित हों| एक संभ्रम सर्वदूर व्याप्त किया गया कि भारत में तो केवल आध्यात्मिक उन्नत्ति का ही विचार किया गया जबकि वास्तविकता यह है की हमारे पूर्वजों ने समुत्कर्ष यानि भौतिक उन्नत्ति एवं निश्रेयस यानिआध्यात्मिक उन्नत्ति दोनों का सफलता पूर्वक विचार व क्रियान्वयन किया था| हमने चार पुरुषार्थकी बात की है- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष  इसमें जीवन को निर्देशित करते हुए ऋषियों ने अर्थ व काम को धर्माधारित हो कर मोक्ष की प्राप्ति के प्रयास करने को कहा है| पश्चिम विचार ने अनेकों समस्याओं को जन्म दिया है, भारत की गति समाधान बनने में है| हमारी परंपरा में सुख का आधार भौतिक वस्तुएं नहीं है, वह तो मन के अन्दर है ,वह व्यक्ति के चित्त औरवृत्ति पर निर्भर है| भारतीय चिंतन के अनुसार सुख का मूल धर्म में तथा धर्म का मूल अर्थ में है| धर्मनिष्ठ व्यक्ति तथा धर्माधारित समाज व्यवस्थाएं ही भारत को परम वैभव के शिखर तक ले जा सकती है| भारत में हमारी अर्थ दृष्टि केवल निज के हित का विचार नहीं करती बल्कि वह सब के सुख की दृष्टि से निर्देशित होती है| भारत में व्यक्ति का विचार करते समय शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा का विचार किया जाता है, अतः निजी सुख की भारतीय कल्पना में भौतिकता व आध्यात्मिकता , दोनों है| दुसरे के सुख का विचार तभी संभव है जब व्यक्ति दूसरों को अपनामानेगा- अपना जैसा माने- एक ही परम तत्व सब में-‘ सर्वं खल्विदं ब्रहम- यही सही अर्थों में अध्यात्म है|हमारी कल्पना में अर्थ व काम अनियंत्रित नहीं धर्म द्वारा नियंत्रित हैं| इसलिए कितना कमाया यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि कैसे कमाया व कितना बांटा, यह महत्वपूर्ण है| काम का नियंत्रण धर्म के द्वारा मतलब संयमित उपभोग, त्यागपूर्वक उपभोग,इन्द्रिय निग्रह पर जोर है|कितना कमान- इस विषय पर हमारे विद्वतजनों ने कहा कि इतना कमाओ की ग्रहस् जीवन की सभी आवश्यकताओं व कर्तव्यों को भलीभांति पूरा कर सको, पर्व, उत्सव अच्छी प्रकार से मना सकें, परिवार के लोगों की सभी आवश्यक एवं उपयुक्त इच्छाओं को पूरा कर सकें,भविष्य की दृष्टि से आवश्यक बचत कर सकें तथा समाजोपयोगी कार्यों में खुले मन से योगदान दें सकेंयानि एक हाथ से कमाओ और हजार हाथों से बांटो|भारतीय अर्थ चिंतन कमाने के साथ लौटाने ( Giving Backकी भी बात करता है क्यूंकि हमारी संस्कृति में उऋण होने को बहुत महत्त्व दिया गया है|उऋण किन से- गुरुओं, देवताओं, समाज, माता पितासे, अतः यहाँ शोषण की कल्पना नहीं पोषण की है|हमारी अर्थ व्यवस्था मनुष्य केन्द्रित है, धन,प्राद्योगिक अथवा साधन केन्द्रित नहीं इसलिए यह सहअस्तित्व व पारस्परिक सहयोग की भावना पर आधारित है| अर्थार्जन के अवसर सभी को उपलब्ध हों| हमारे यहाँ Struggle For Existence तथा Survival Of Fittest का विचार नहीं बल्कि Survival of the Weakest की सुनिश्चितता की जाती है|Mass Production व Production byMasses का संतुलन स्थापित करने पर हमारा जोर रहता है| विकसित भारत में शहरीकरण की प्रवृत्ति को कम करने के लिए ग्रामों में आधारभूत सरंचना खड़ीकरने पर जोर रहेगा यानि Providing urban facilities in rural area| R&D यानि शोध को महत्त्व देना होगा जिससे उत्पादन की श्रेष्ठता सुनिश्चित हो- योगः कर्मसु कौशलम| उत्पादन खर्चे पर आधारित लाभकारी मूल्य तो हो पर ध्यान रहे हमारा लक्ष्य सबका सुख ही है| हमारी समस्त व्यवस्थाएं प्रकृति का शोषण नहीं दोहन करने वाली बनें, इसीलिए तो हमने पृथ्वी को माता कहा है|

स्वाव्लम्बिता व स्वदेशी  किसी भी ससमाज का निर्यात एवं आयत का संतुलन प्रत्येक अन्य समाज,देश से व्यापर करते समय बना रहे, यह उस समाज की आत्मनिर्भता के लिए जरुरी है| स्वदेशी यानि Vocal For Local, इसी स्व के भाव से स्वाभिमान जागृत रहता है| यह स्मरण रहे की पुराना सब अनुकरणीय नहीं तथा नया सब त्याज्य नहीं होता |अपनी पुरानी सभी बैटन को कालसुसंगत तथा बहार की बैटन को देशसुसंगत बनाते हुए अपनाना चाहिए,Adopt और Adapt का अंतर समझना चाहिए|

विज्ञान व प्रद्योगिकी  अपने देश में तत्वज्ञानी ऋषियों ने हमें बताया है की आत्मा से सम्बंधित ज्ञान विद्या कहलाती है तथा इस जड़ सृष्टि से सम्बंधित ज्ञान अविद्या कहलाता है| भारत में दोनों के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई थी तथा दोनों को ही महत्त्व दिया गया| दोनों का मेल ही मनुष्य का निर्माण करता है नहीं तो उसे राक्षस बनाने में देर नहीं लगेगी|इसी बात को महात्मा गाँधी जी ने अपने लेख में निम्न सामाजिक पापों का वर्णन करते हुए लिखा हैWealth without Work, Pleasure without Conscience, Knowledge without Character, Commerce without Morality, Science without Humanity, Religion without Sacrifice and Politics without Principles.

पूर्व में भारत की उन्नत अवस्था का मुख्य कार था की यहाँ प्रश्न पूछने की सहज स्वतंत्रता तथा स्वयं प्रयोग करने व चिंतन द्वारा उसका समाधान तथा उत्तर खोजने की परंपरा रही है, इसे ही आज R&Dमानसिकता कहते हैं|नवाचार यानि इनोवेशन को हमेशा ही भारत में प्रोत्साहन दिया जाता रहा है|भारतीय चिंतन के अनुसार व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि व परमेष्टि में एकात्मता है अतः प्राद्योगिकी का विचार करते समय हमें यह विचार करना चाहिए की यह एकात्मता टूटे नहीं बल्कि पोषित ही हो|इसीलिए हमारे यहाँ विज्ञान व प्राद्योगिकी कप धर्म द्वारा नियंत्रित करने की बात कही गयी यानि ये उन बातों पर आधारित हों जिनसे समाज व सृष्टि की धारणा होती हो| भारत का परिवेशआवश्यकता और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमारी प्राद्योगिकीकम पुन्जिवाली, कम उर्जाभक्षी, टिकाऊ यानि Sustainable हो, समुचित यानि Appropriate हो,रोजगारन्मुख, विकेन्द्रित, पर्यावरण सुसंगत तथा मानवीय चेहरा लिए होनी चाहिये | अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति तथा प्रसिद्ध पर्यावरणविद Al Goreकहते हैं- “ We have been on the wrong track for the last 300 years. It is time to pause and rethink and turn to East for the guidance.”

कृषि- हमारे यहाँ कहा गया है की- उन्नत खेती,माध्यम बान | अधम चाकरी, यह सब जान|| आज समाज में इन तीनों को समान महत्त्व देने का वातावरण बनाने की आवश्यकता है क्यूंकि सभी प्रकार के कर्मों को समान ही माना गया है| हमारी चिंतन परंपरा के अनुसार कृषि वर्षा पर आधारित ना होकर मनुष्य के प्रयासों पर आधारित होनी चाहिए- महाभारत| हमारी कृषि धरती की उत्पादकता बढ़ने वाली हो ना की उसे जहरीली बनाने वाली, अतः खेती में जैविक खादों एवं जैविक कीटनाशकों को बढ़ावा देने की नीति हो|पर्याप्त जल के लिए जल श्रोतों का उचित रखरखाव तथा पानी कप सब जगह पहुँचाने हेतु उचित नाहर व्यवस्था, उसका रखरखाव, वर्षा जल के भण्डारण हेतु व्यवस्था आदि अनेक बातों पर हमारे यहाँ पहले पर्याप्त ध्यान दिया जाता रहा है|फसल के बीजों के लिए परनिर्भरता किसी भी स्वावलंबी समाज के लिए उचित नहीं होती| फसलों के भण्डारण, सरंक्षण, वितरण की विकेन्द्रित व्यवस्था होनी चाहिए| MSP निर्धारण करने हेतु किसान, सरकार, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री- इन सबकी भूमिका सुनिश्चित होनी चाहिए तथा निश्चित अंतराल पर MSP का पुनर्निरीक्षण होता रहे|

समाज निर्भर तंत्र- आध्यात्मिक उन्नति से सम्बंधित-

आध्यात्मिक गुणों के विकास में शिक्षा व्यवस्था,संस्कृति, क्रीडा, स्वास्थ्य  इन सबकी महती भूमिका होती है| स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था की- “ अगर गीता का ज्ञान समझना हो तो फुटबॉल के मैदान में जाओ|

स्वामी जी आगे कहते हैं “ Every soul is potentially divine. The goal is to manifest the divinity within by controlling nature, internal and external. Do it either by work or worship or by psychic control or meditation, any of these four, or more or all and be free.”

शिक्षा- शिक्षा का उद्द्येश्य अच्छा मानव बनाना है| भारत की शिक्षा की जडें यहाँ के स्व से पोषित होनी चाहिए| 1964 में राष्ट्रिय शिक्षा नीति बनाने वाली समिति के अध्यक्ष श्री कोठारी जी ने एक कार्यक्रम में भारत की शिक्षा व्यवस्था के मूल दोष ओउचे जाने पर कहा था कि “ भारत की शिक्षा व्यवस्था का मूल दोष यह है की भारत के शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों का गुरुत्वाकर्षण केंद्र भारत से बहार पश्चिम में है|किसी भी देश की शिक्षा वस्तुतः उस देश की परंपरा,दृष्टिकोण, योगदान को पोषण करने वाली होनी चाहिए ना की विदेश को| भारत के स्व के आधार पर दी जाने वाली शिक्षा से ही हम सही अर्थों में भारत को समझ पाएंगे, उसे जानेंगे, मानेंगे, तभी हम भारत के बनेंगे तथा भारत को बना पाएंगे|आज आवश्यकता है की शिक्षक गुरु व आचार्य बने ना की वेतनभोगी कर्मचारी| हमारी शिक्षा Enterpreneurship को बढ़ावा देने वाली हो ,केवल नौकरी को बढ़ावा देने की मानसिकता वाली नहीं|

संस्कृति- संस्कृति के अंतर्गत समाज का इतिहास व सहजीवन के कारण उसमें विकसित मान्यताएं,परम्पराएं, अच्छे बुरे की धारणाएं, उसमें से विकसित विशिष्ट गुण- व्यवहार आदि बातें समाहित हैं| कला, साहित्य, नृत्य, नाटक, फिल्म आदि के माध्यम से इन्हें प्रस्तुत किया जाता है| हमारे यहाँ कला केवल स्वान्तः सुखी नहीं अपितु जगत हिताय भी होती रही हैं| हमारे जीवन मूल्यों में भौतिकता एवं आध्यात्मिकता में संतुलन व सामंजस्य रहा है, इसीलिए अधिकार से पहले कर्तव्य, उपभोग से पहले त्याग, महिला पुरुष में परस्पर पूरकता, कृतज्ञता का भाव, सभी उपासना पद्धितियों के प्रति स्वीकार्यता व आदर का भाव, अतिथि देवो भाव का विचार, समाज सृष्टि के भले का विचार, सृष्टि विजय के सिहं पर सृष्टि दर्शन व उसे पोषण का विचार रहा है| अतः पर्यावरण के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सत्य- प्रमाणिकता- उदारता- इन्द्रिय निग्रह- सयंम- अस्तेय-अक्रोध- स्वछता- पवित्रता आदि नैतिक गुण, ज्ञान के प्रति  आ नो भद्राः कृत्वो यन्तु विश्वतः  का दृष्टिकोण इत्यादि अनेक बातें भारतीय संस्कृति में समाहित हैं |

स्वास्थ्य  केवल शारीरिक, मानसिक रोगों के उपचार तक हमारा विचार सिमित नहीं रहा बल्कि किसी भी प्रकार का रोग ही ना हो इस प्रकार की जीवन शैली अपनाने पर भी जोर रहा है| इसके अंतर्गत आहार- विहार- स्वच्छता- व्यायाम- चिंतन, इन सबका विचार होता रहा है| हमारी परंपरा में केवल मनुष्य ही नहीं उसके साथ साथ पशु, पक्षियों यानि समस्त जीवों के स्वास्थ्य एवं अस्तित्व की चिंता की गयी है|

 

भारत का परम वैभव तभी होगा जब भारत के विचार पर हम आगे बढ़ेंगे| पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम जी कहते हैं कि- “हमें भारत को विकसित देशों की श्रेणी में लाना है, एक ऐसा भारत बनाना है जिसकी जडें हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में होगी|” 

इस हेतु तंत्र परिवर्तन में लगे लोगों का स्वाभावलचीला, Agree to Disagree वाला और बहुमत को मान्यता देनेवाला होना चाहिए| अपने मत का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करते हुए तो अवश्य चलें पर दुराग्रही ना बन जायें, इतनी सावधानी तो हमें रखनी पड़ेगी|

विश्व का इतिहास देखें तो समृद्ध व शक्तिशाली भारत सदैव विश्वगुरु रहा है, उसने अन्य देशों, समाज का भला ही किया है ना की शोषण|सुपरपावर की संकल्पना एकल प्रभुत्व का ही विचार करती है, अपने स्वार्थ से ही प्रेरित होती है, जबकि विश्वगुरु की संकल्पना पारस्परिक विकास व सहयोग तथा सबके साथ मिलकर चलने तथा एक दुसरे के हितों का विचार करने वाली है| सुपरपावर हमेशा अपने साम्राज्य के विस्तार किसोव्चता है तथा अपने व्यवहार से दूसरों को भयभीत व वशीभूत करने का विचार करता है, जबकि विश्वगुरु अन्याय पर विजय प्राप्त कर उस देश का शाशन वहीँ के लोगों पर छोड़ता हैतथा अपने व्यवहार से दूसरों में सहजता, निर्भैयता महसूस कराता है| गुरुदेव श्री रविंद्रनाथ टैगोर अपने लेख ‘स्वदेशी समाज’ में लिखते हैं  “ We must know that every race is a part of the Global Man. Every race establishes itself by giving an account of what is its innovation to gift to all over the universe. When any race looses the vigour to innovate, it exists as a load, like a paralytic body part on the body of that huge man. Indeed there is no glory in only existing.

Bharat has never fought over kingdom, squabbled over trade. The Tibbet, China or Japan, who are willing to close all doors and windows in fear of the Great Europe, they have beckoned Bharat inside their home in an unworried fashion as Guru or Religious Leader. Bharat has not traumatised the whole world’s flesh and blood with her own army and goods, but has acquired the esteem of mankind by establishing peace, consolation and religious systems everywhere. Thus the glory she has acquired has been done through penance and it is greater than the glory of sovereignity over other kingdoms.”

 

 

Chinese Ambassador to USA from 1938 – 1942, Hu Shih – “ India have conquered China for Hundred of years without sending a single soldier.” 

 

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी भी अपनी कविता में कहते हैं- 

“ कोई बतलाये काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी,

भूभाग नहीं शत- शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय, 

हिन्दू तन मन, हिन्दू जीवन, रग रग हिन्दू मेरा परिचय|

 

हमारे यहाँ परम वैभव की कल्पना यानि राम राज्य है, तो वो रामराज्य कैसा था ? तुलसीदास जी लिखते हैं 

     दैहिक दैविक भौतिक तापा|राम राज्य नहीं काहुहि ब्यापा ||

     सब नर करहिं परस्पर प्रीति| चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती||

     सब निर्दंभ धर्मरत पुनी| नर अरु नारि चतुर सब गुनी||

     सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी| सब कृतग्य नहिं कपट सयानी||

यह राम राज्य के सामान्य नागरिकों का वर्णन है| हम भी इस भारत वर्ष की संतानें हैं तो हमको भी इस प्रकार कके ताप का आचरण करना पड़ेगा, सभी प्रकार के कलहों को छोड़ना पड़ेगा| छोटे छोटे मत रहते हैं, छोटे छोटे विवाद रहते हैं, उनको लेकर लड़ाई करने की आदत छोडनी पड़ेगी| रामराज्य में आखिर सामान्य नागरिक कैसे थे- निर्दंभ, प्रमाणिकता से आचरण करने वेक, केवल बातें करने वाले नहीं, बातें करके उसका अहंकार पलने वाले नहीं थे, काम करते थे, आचरण करते थे| उनमें अहंकार नहीं था| वो ऐसे थे और धर्मरत थे यानि क्या थे? धर्म के चार मूल्य श्रीमद भागवत में बताये गए हैं| वे चार मूल्य हैं- सत्य, करुणा, शुचिता व तपसा| उनका आज हमारे लिए युगानुकुल आचरण क्या है? सत्य कहता है की सब घट में राम हैं| ब्रह्म सत्य है, वाही सर्वत्र है| हमको ये जानकार आपस में समन्वय से चलना होगा, क्यूंकि जब हम चलते हैं तो सबके लिए चलते हैं| सब हमारे हैं, इसलिए हम चल पते हैं| अतः आपस में समन्वय रखकर व्यवहार करना धर्म के पहले तत्व यानि सत्य का आचरण है| करुणा दूसरा तत्व है- उसका आचरण है सेवा और परोपकार| सरकार की अनेक योजनायें गरीबों को लाभ दे रही हैं, सब हो रहा है लेकिन हमारा भी कर्तव्य है| ये सब समाज बंधू हमारे अपने बंधू हैं| जहाँ हमको दुःख, पीड़ा दिखती है वहां हम दौड़ जायें, सेवा करें| दोनों हाथों से कमाएं, अपने लिए न्यूनतम आवश्यक उतना रखकर बाकी सारा सेवा और परोपकार के माध्यम से वापस दें, यही करुणा का आज अर्थ है|नागरिक अनुशाशन का पालन करना ही सच्ची देशभक्ति है| श्हुचिता पर चलना है यानि पवित्रता होनी चाहिए| पवित्रता के लिए संयम चाहिए, अपने को रोकना है| सब अपनी इच्छाएं, अपने मत, अपनी बातें ठीक होंगी ही ऐसा नहीं है| होंगी तो भी अन्यों का भी मत है, अन्यों की भी इच्छाएं हैं, इसलिए अपने आप को हमें संयम में रखना होगा, तभी साड़ी पृथ्वी सभी को जीवित रख पायेगी| महात्मा गाँधी जी कहते थे- Earth has enough for everyone’s need, but it can not satisfy everyone’s greed.” इसलिए लोभ नहीं करना,संयम में रहना और अनुशासन का पालन करना| अपने जीवन में अनुशासित रहना, अपने कुटुंब में अनुशासन रखना, अपने समाज में अनुशासन रखना और सामाजिक जीवन में अनुशासन का पालन करना| भगिनी निवेदिता कहती थीं कि स्वतंत्र देश में नागरिक संवेदना रखना और नागरिक अनुशासन का पालन करना ही देशभक्ति का रूप है| इससे जीवन में पवित्रता आती है|व्यक्तिगत तपस तो हम करेंगे, पर सामूहिक तपस को भी ध्यान में रखें|सामूहिक तपस है  संघअच्छध्वं संवदध्वं सन वो मनांसि जानताम | हम साथ चलेंगे, आपस में बोलेंगे और उसमें से सहमती का स्वर निकालेंगे| एक ही भाषा बोलेंगे, तो वाणी, मन, कर्म, वचन समन्वित होगा और हम मिलकर चलेंगे| तभी हम परम वैभव को ला पाएंगे, यह तपस हम सभी को करना है| इसके लिए हमें अपने मन मंदिर को संवारना होगा| यह मन मंदिर कैसा होना चाहिए तो तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा है- 

काम कोह मद मान न मोहा| लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा||

जिन्ह कें कपट दंभ नहीं माया| तिन्ह कें ह्रदय बसहु रघुराया||

जाति पांति धनु धरमु बड़ाई| प्रिय परिवार सदन सुखदाई||

सब ताज तुम्हहि रहइ उर लाई| तेहि के हृदयं रहहु रघुराई||

हमारे ह्रदय में भी राम का बसेरा होना चाहिए| सभी दोषों, विकारों से, द्वेषों से एवं शत्रुता से मुक्त होकर दुनिया की माया कैसी भी हो उस में सब प्रकार के व्यवहार करने के लिए समर्थ|ह्रदय से सब प्रकार के भेदों को तिलांजलि देकर , केवल अपने देशवासी ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जगत को अपनाने की क्षमता रखने वाला इस देश का व्यक्ति, और ऐसा समाज गढ़ने का यह काम जितनी गति से होगा उतने ही गति से हम अपने परम वैभव के सपने को साकार कर पाएंगे|

 

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