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Showing posts from May, 2020

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते इस संसार में ज्ञान के समान पवित्रता प्रदान करने वाला कुछ भी नहीं है। हम अपने शरीर व कपड़ों को जल व साबुन से धोकर स्वच्छ करते हैं, यह तो केवल बाह्य शरीर की साफ सफाई है। मन व बुद्धि की स्वच्छता हेतु, पवित्रता तो ज्ञान यानि सत्य के ज्ञान से ही आ सकती है। अतः इस ज्ञान की अग्नि को अपने अंदर सदैव प्रज्जवलित करके रखना चाहिए तथा इसकी प्रखरता तीव्र से तीव्रतर करते हुए सत्य का अन्वेषण करने का प्रयास करते रहना आवश्यक है। जिसके अंदर ज्ञान की यह अग्नि जितनी मात्रा में प्रज्जवलित होगी, वह उतना ही पीड़ा, तनाव व दबाव को सहन करने में समर्थ होगा। इस प्रकार जीवन को सफलतापूर्वक व्यवहार में लाने की क्षमता ज्ञान की अग्नि पर निर्भर करती है जो हमने अपने हृदय में प्रज्जवलित कर रखी है। ज्ञान की अग्नि प्रज्जवलित कराना, यह एक अत्यन्त श्रेष्ठ विचार है। वह ज्ञान जो हमें शिक्षा के द्वारा मिलता है वह केवल पुस्तकीय होने के लिये नहीं है, अपितु वह ज्ञान समन्वित चरित्र के रूप में झलकना चाहिए। ‘न हि ज्ञानेन सदृशं’, जब मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी, तब  उन्होंने इस वाक्य को अ

तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रष्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्षिनः।। (4.34

तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रष्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्षिनः।। (4.34) ज्ञानियों को दण्डवत् प्रणाम करते हुए, बार-बार प्रश्न करते हुए और उनकी सेवा करते हुए उस सर्वोच्च सत्य को जानो, जिन्होंने उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, वे तुम्हें इस ज्ञान का उपदेश देंगे। ज्ञान की उपलब्धि प्राप्त करने के लिए एक गुरू यानि योग्य सक्षम शिक्षक के पास जाना चाहिए, उसे जानना, समझना चाहिए। भगवान कहते हैं उसके पास जाकर उसे प्रणाम करें, प्रणिपात यानि प्रणाम करना, तत्पश्चात, परिप्रश्नेन यानि गुरू से व स्वयं की बुद्धि से, दोनों से निरन्तर प्रश्न करते हुए ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करना चाहिये। प्रश्न करना व उसका उत्तर ढूँढने का प्रयास करना, यह ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है। केवल एक बार प्रश्न करना पर्याप्त नहीं, भगवान कहते हैं, परिप्रश्नेन अर्थात् निरन्तर प्रश्न करना-अनुभव के आधार पर धीरे-धीरे प्रश्नों का स्तर गहरा व गंभीर होते जाना चाहिए, सतही प्रश्न नहीं, उसमें हमारी उत्तर प्राप्त करने की तड़प नहीं दिखती है। यह सब करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं, सेवया, अर्थात् गुरू की सेवा करना -

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रहैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।। (4.24)

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रहैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।। (4.24) अर्पण की प्रक्रिया ब्रह्म है, अर्पित किया गया सामग्री घृत आदि ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही ब्रह्म की अग्नि में अर्पित किया गया है, इसके द्वारा, जो ब्रह्म कर्म की समाधि में है, उसे केवल ब्रह्म तक ही पहुँचना है। ब्रह्म कर्म समाधि यानि ब्रह्म की भांति कर्म करने वाला, ऐसा व्यक्ति जानता है कि जो कुछ भी वह करता है, वह और कुछ नहीं केवल दिव्य है। यही वेदान्त सत्य है कि इस ब्रह्माण्ड में सर्वदूर केवल ब्रह्म ही है - असीम, अद्वैत शुद्ध चैतन्य - सब उसीकी अलग-अलग रूप में अभिव्यक्ति है।National Geographic पत्रिका (September 1948) में प्रकाशित एक निबन्ध The Sun is the Great Mother में लेखक Thomas R Henry कहते हैं, हम अपने भोजन में और इसके पाचन में भी सूर्य खाते हैं, हम अपने वस्त्रों में सूर्य पहनते हैं, हम सूर्य को अपने कोयले, पेट्रोल आदि में काम में लेते हैं, और इस वाक्य से अन्त करते हुए कि - विशेष रूप से गुँथे हुए हैं जीवन और प्रकाश के धागे। इसी सत्य को हमारे ऋषियों ने समझा है। सूर्य को हम ‘पूष

कर्मण्यकर्म यः पष्येद् अकर्मणि च कर्म यः

कर्मण्यकर्म यः पष्येद् अकर्मणि च कर्म यः अकर्म में कर्म देखना और कर्म में अकर्म देखना-यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, परन्तु मानवीय अनुभव में यह प्राप्त किया जा सकता है, असंभव नहीं है। चीनी विचारधारा, ताओवाद एवं कन्फूशियन विचार में भी यह सिद्धांत मिलता है, जहाँ वे इसे कहते हैं, ‘कोई काम नहीं’ वास्तविक कार्य है। कार्य, बिल्कुल कोई कार्य नहीं रहता, यह तो प्रश्न कर्तापन के भाव व आसाक्ति का है। जब ये दोनों नहीं रहते तो कार्य खेल हो जाता है, सहज हो जाता है। कार्य का विचार तब आ जाता है जब प्रयास, संघर्ष व तनाव रहता है। जब अनासक्ति व कर्तापन का भाव चला जाता है, तब सारा तनाव भी खतम हो जाता है और कार्य करते हुए भी कभी ऐसा नहीं लगता कि कोई कार्य हो रहा है। उदाहरण एक माँ द्वारा अपने शिशु की परिचर्या, इस कार्य को वह कभी बोझ नहीं मानती-जब इस प्रकार का समर्पण व निश्छल प्रेम होता है तभी कार्य बोझ नहीं लगता तथा कर्म करते हुए भी अकर्म का भाव रहता है। उत्तरोत्तर बढ़ती औद्योगिक सभ्यता ने कार्य को बेगार बना दिया है, जिसके कारण लोग आनन्द को कार्य के बाहर खोजते हैं, इसीलिये इतने सारे अवकाशों की व्यवस्था क

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागषः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। (4.13)

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागषः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। (4.13) गुण और कर्म की विविधताओं के आधार पर चतुर्वर्ण व्यवस्था मेरे द्वारा बनाई गई थी। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का कर्ता हूँ, तथापि मुझे अकर्ता और अपरिवर्तनशील समझो। चार वर्णों के आधार पर समाज का संगठन-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - प्रत्येक और किसी भी समाज में अपनी रूचि और क्षमता के अनुसार होते हैं - गुण, कर्म, ”उनके गुणों और कर्मों के अनुसार।“ गुणकर्म यह निर्धारित करेगा कि कोई ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य है या शूद्र है। किसी भी परिवार में इनमें से किसी भी प्रकार की संतानें हो सकती हैं। विभिन्न व्यक्ति विभिन्न कर्म या धंधा अपने मानस के झुकाव के अनुसार, अपने गुणों के अनुसार करते हैं। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता का द्योतक है। आप जो भी व्यवसाय चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं। समाज को संगठन की आवश्यकता होती है - समूहों में संगठन - और ये संगठन हमने भारत में बनाए - पहले श्रम, फिर व्यापार, कृषि, उद्योग, फिर हम प्रशासन - सेना व राजनीति तथा अंत में उच्च बौद्धिक व आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने वाले। लेकिन भा

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम्। मम् वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (4.11)

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम्। मम् वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (4.11) स्त्री और पुरूष जिस किसी प्रकार से मेरी पूजा करते हैं, उसी प्रकार से मैं उनकी इच्छाऐं पूरी करता हूँ, यह मेरा मार्ग है, जिस पर, हे अर्जुन, सभी प्रकारों से लोग चलते हैं। जो भी मार्ग कोई स्त्री/पुरूष चुनता है, वे सब मार्ग मेरी ओर ही आते हैं, मार्ग अनेक लेकिन मंजिल एक-इसी पर बल दिया है - समन्वय का अद्भुत दृष्टिकोण है। भगवान कह रहे हैं कि मुझ तक पहुँचने का कोई एक निश्चित मार्ग नहीं है, कोई भी किसी भी रास्ते से आकर मुझ तक पहुँच सकता है। यह समन्वय का भाव भारतीय संस्कृति का अत्यन्त महान योगदान है, जो किसी प्रकार की व्यवहारिकता या नीति के कारण नहीं आया, अपितु एक व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि व दार्शनिक समझ से आया है। कोई एक निश्चित मानक मार्ग नहीं, इस प्रकार का कोई धर्म-मत-पंथ सम्बन्धी मानक नहीं, यही विचार ऋगवेद के इस कथन में भी प्रकट होता है - ”एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति-सत्य एक है, विद्वान लोग इसे अनेक नामों से पुकारते हैं।“ ‘यतो मत, तथो पथ’ - जितने मत होंगे, उतने ही पथ/सम्प्रदाय होंगे। अतः समन्वय,

ज्ञानतपसा पूता

ज्ञानतपसा पूता ‘ज्ञानतपसा पूता’ - यानि ज्ञान के तपस् द्वारा शुद्धिकृत होकर। ज्ञान - यानि आध्यात्मिक ज्ञान को तपस् की श्रेणी में रखा गया है। तपस् - यानि साधना, ज्ञान की साधना। इस ज्ञान की साधना द्वारा अपने मन, व्यक्तित्व का शुद्धिकरण करना। इस ज्ञानतपस् के लिए स्व अनुशासन, आत्मसंयम एक आवश्यक तत्व है। जब शिक्षा से ज्ञानार्जन की प्रक्रिया से तपस् निकल जाता है तो शिक्षा सस्ती व हल्की हो जाती है। आज समाज में यही सस्ती शिक्षा का प्रचलन सर्वदूर दिखता है। शिक्षा से ज्ञानतपस् का भाव पूर्णतः समाप्त हो गया लगता है। मानव मन को ज्ञान की खोज के स्तर तक उठाया जाना चाहिए और जो सीखा है उसे पचाकर ग्रहण करना चाहिए, यही तपस् है। यह एक अत्यन्त कठिन साधना है-ज्ञान को पचाना। ज्ञानतपस् का दूसरा पहलू है - क्रोध, वासनाऐं, घृणा, भय आदि की भावुकताओं को ज्ञान की अग्नि में जलाना-इसी से चरित्र निर्माण होता है। अतः इस मानव मन और शरीर को एक परिशुद्धिकरण का कारखाना बनाना होगा, मनोवैज्ञानिक परिशुद्धिकरण का कारखाना। इसी से सभी नीतिगत व मानवीय मूल्य-प्रेम, करूणा, अभय, सेवा का भाव बाहर आएगा। इस सभी मूल्यों का स्त्रोत अ

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। भगवान श्री कृष्ण गीता के चौथे अध्याय के इस श्लोक में अवतारों के अवतार लेने के कारणों को स्पष्ट रूप से बता रहे हैं। वे कहते हैं - ‘सदाचारियों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए युग युग में अवतार आते हैं।’ संसार की अच्छी स्थिति में पालन अवतार का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। आदिगुरू शंकराचार्य जी गीता की अपनी टीका में कहते हैं कई बार काल के प्रवाह में सामाजिक ताना बाना टूट जाता है, मनुष्य को एक दूसरे से जोड़ने की कड़ियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, तब वह समाज विखण्डित होने लगता है-हिंसा, अपराध, असंतोष बढ़ने लगता है। इस स्थिति को कोई बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ या कर्मकाण्डी मत/पंथ के नेतृत्वकर्ता नहीं बदल सकते, केवल एक दिव्य शक्ति ही इसे बदलने का सामर्थ्य रखती है। नैतिक व आध्यात्मिक उन्नति किसी निश्चित मानव स्थिति में केवल उच्च आध्यात्मिक व्यक्तित्वों से ही आ सकती  है, किसी अन्य साधन से नहीं। इसलिए भगवान कहते हैं ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर अवतार आते हैं। स्वामी विवेकानन्द अपने व्याख्यानों मे

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः यह दर्शन जिसे योग कहा जाता है, गुरू शिष्य परम्परा द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा तथा राजर्षियों ने इसे जाना। शंकराचार्य जी कहते हैं, ”रजानश्च् ते ऋषियश्च् इति राजर्षिः“ - वे जो राजा और ऋषि दोनों एक ही रूप में है, राजर्षि कहलाते हैं। श्री कृष्ण यह दर्शन उन सब लोगों के लिए दे रहे हैं जो शक्ति और उत्तरदायित्व की स्थिति में हैं, वे सभी राजा हैं क्योंकि शक्ति का प्रयोग करते हैं, वे सब ऋषि भी हैं क्योंकि वे इस योग दर्शन का अनुसरण भी करते हैं, उनके पास आध्यात्मिक प्रेरणा भी है, अतः वे सभी राजर्षि हैं। भगवान इस श्लोक में आगे कहते हैं - योगो नष्टः, काल के प्रवाह में यह योग नष्ट हो गया यानि खो गया। शंकराचार्य जी अपनी टीका में बताते हैं कि योग कैसे खो गया - ”दुर्बलान् अजितेन्द्रियान् प्राप्य योगो नष्टः - जब यह योग दुर्बल व्यक्तियों के हाथों में पड़ा तो खो गया। दुर्बल लोग यानि शारीरिक रूप से दुर्बल, मानसिक रूप से दुर्बल, अजितेन्द्रियान्-बिना इन्द्रियों के अनुशासन वाले लोगों के हाथों में पड़कर यह क्रमशः क्षीण होता चला गया, अर्थात् राजर्षियों की कमी हो गई। जब हम

काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।

काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।। भगवान कह रहे हैं, यह काम है, कभी न तृप्त होने वाली इच्छा और यह क्रोध है, ये मनुष्यों में रजोगुण से उत्पन्न होते हैं, ये अत्यन्त वासनापूर्ण एवम् बड़े पापी हैं, इन्हें तुम अपना शत्रु ही जानो। काम एक महान शब्द है, इसे दो दृष्टिकोणों से लिया जाता है। ‘अकामस्य क्रिया नास्ति’ - अन्दर काम या इच्छा के न रहने पर कोई भी बिल्कुल कार्य नहीं कर सकता है। सभी कर्म काम द्वारा ही प्रेरित होते हैं। समाज में कोई ऐसे लोग हैं जो गंदगी में रहते हैं, विद्यालय है लेकिन पढ़ने नहीं जानते - क्योंकि उनके मन में बेहतर जीवन जीने की कामना ही खत्म हो गई है। अतः ऐसे लोगों के लिए तो पहला पाठ यही है कि उनमें इच्छा जगाई जाए। अतः जीवन का पहला स्तर काम है। इसी प्रकार क्रोध भी आवश्यक है - सामाजिक दुर्व्यवहार के प्रति समुचित कोप आवश्यक है। लेकिन उन्हें अनुशासन और नियंत्रण की आवश्यकता है, ये अंधी शक्तियाँ हैं। इसके बाद शिक्षा आती है, जिसमें नीतिगत और नैतिक चेतना के द्वारा मूल्यों के प्रति चेतना, जागरूकता सम्मिलित है। उस स्तर पर हमसे काम व क्रोध के निय

प्रकतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति

प्रकतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति हमारे अंदर और बाहर समस्त प्रकृति ही है। यह शरीर-इन्द्रिय-मन समूह उसी पदार्थ का विकास है जिससे कि बाह्य प्रकृति विकसित हुई है| हम इस बाह्य प्रकृति द्वारा एक सामान्य पशु की भांति रहने को बाध्य हैं, हमें यह सहन करना होगा। हमारे मन-इन्द्रियों को नियंत्रण करने वाली यह बाह्य अपरा प्रकृति हमें कर्म करने को बाध्य करती है। बाह्य प्रकृति से नियंत्रित होने के कारण इन्द्रियों  की वृत्ति बाह्य जगत की ओर उन्मुख रहती है , मन भी इन्द्रियों का अनुसरण करता हुआ बाहर के सुखों की ओर जाता है, ऐसा करते हुए हम अपने अंदर एक विशेष प्रकार का स्वभाव निर्माण कर लेते हैं जिन्हें आन्तरिक वृत्तियाँ, संस्कार या वासनाऐं कहते हैं। अपरा प्रकृति से नियंत्रित होने के कारण व उसके प्रबल आवेग में ज्ञानी व्यक्ति भी अवश होकर एक विशेष दिशा में खिंच जाता है। परन्तु ज्ञानी व्यक्ति अपने सतत् अभ्यास से परा शक्ति का उपयोग कर बेहतर और पूर्णतर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। भगवान कहते हैं लोग प्रकृति की प्रवृत्तियों का अनुगमन करते हैं, अतः केवल इनका निग्रह क्या कर सकता है? हम प्रकृति की इन शक्ति

अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते

अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते भगवान कह रहे हैं कि प्रकृति के गुण ही समस्त कार्य करते हैं, अहंकार द्वारा भ्रमित समझ के कारण मनुष्य सोचता है, ”मैं कर्ता हूँ।“ हमारे द्वारा किए जा रहे समस्त कर्म, गतिविधियाँ वास्तव में प्रकृति के तीन गुण-सत्व, रजस् व तमस्, के कारण होती हैं, लेकिन अज्ञानी लोग प्रकृति द्वारा प्रदत्त अहं भाव के कारण सोचते हैं कि मैं कर्ता हूँ। आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक विचार प्रकृति को केवल बाह्य रूप में जानता व मानता है, परन्तु वेदांत के अनुसार मनुष्य में दोनों प्रकृति है - बाह्य प्रकृति एवं अन्दरूनी प्रकृति का उच्चतर आयाम जो बुद्धिमता में व्यक्त होता है। निम्न जड़ बाह्य प्रकृति को ‘अपरा प्रकृति’ और उच्चतर आन्तरिक प्रकृति को ‘परा प्रकृति’ कहा जाता है। उदाहरणतः हम खाना खाते हैं तो सोचते हैं कि खाने का निर्णय मैंने लिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह प्रकृति ही हमें खाना खाने को बाध्य करती है। प्रकृति की ये शक्तियाँ हमसे कर्म करवाती हैं - चेतन मन, अहंकार द्वारा अधीनस्थ होकर अधिकांशतः उपचेतन Subconscious और अचेतन Unconscious मन की सेवा में होता है। प्रकृति मन को संचालि

न बुद्धिभेदं जनयेत् अज्ञानां कर्मसाघिòनाम्। जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान युक्तः समाचरन्।।

न बुद्धिभेदं जनयेत् अज्ञानां कर्मसाघिòनाम्। जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान युक्तः समाचरन्।। किसी को कर्म में आसक्त अज्ञानी लोगों की बुद्धि को विचलित नहीं करना चाहिये, प्रबुद्ध व्यक्ति, जो स्वयं योग के भाव से कर्म में युक्त है, उसे चाहिये कि वह अज्ञानी को भी सभी कर्मों में लगाए रखे। अर्थात् विद्वान व्यक्ति अज्ञानी को अपना सुधार करने में सहायता तो करे परन्तु उनके मनों तथा दृष्टिकोणों को विचलित नहीं करना चाहिए - उन्हें स्वयं समझने दें, कदम-दर-कदम धीरे धीरे। एक अमेरिकी लेखक ब्रूस बार्टन ने अपनी एक पुस्तक में लिखा, ‘एक अच्छा शिक्षक वह है जो विद्यार्थी के स्तर पर आता है और फिर उसे धीरे-धीरे उठाता है।’ न्यूयार्क में 1896 में ‘मेरे गुरूदेव’ विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था - ”किसी मनुष्य की श्रद्धा नष्ट मत करो। यदि हो सके तो उसे जो कुछ अधिक अच्छा है दे दो, यदि हो सके तो जिस स्तर पर वह खड़ा है, उसे सहायता देकर ऊपर उठा दो - परन्तु जिस स्थान पर वह था, उस जगह से नीचे उसे मत गिराओ, सच्चे गुरू ऐसे ही कार्य करते हैं। सच्चा शिक्षक वही है जो विद्यार्थी को सिखाने की दृष्टि से विद्यार्थी

लोकसड्ग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि

लोकसड्ग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि भगवान कहते हैं कि लोकसंग्रह को सुनिश्चित करने की दृष्टि से भी, मानव समाज के स्थायित्व के लिए, तुम्हें कर्म करने चाहिए। भगवान राजा जनक का उदाहरण हमारे सामने रखते हैं, वे राजा होते हुए अपने सब प्रकार के कर्म आसक्ति रहित होकर करते हैं, कर्मयोग के माध्यम से अपने अंदर अध्यात्मिक ऊर्जा को उन्होंने प्राप्त किाय। हमें भी सांसारिक जीवन में कार्य करते हुए इस आध्यात्मिक प्रकाश को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए - स्वहित से ऊपर उठकर लोकहित यही एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए। लॉर्ड एक्टन का एक प्रसिद्ध कथन है - ”शक्ति या सत्ता भ्रष्ट करती है, अतिशय शक्ति या अत्यधिक सत्ता अतिशय भ्रष्ट करती है।“ गीता हमें जीवन तथा कार्य का ऐसा दर्शन प्रदान करती है जिससे शक्ति को भ्रष्ट होने से बचाया जा सकता है। मान लीजिए विशेष परिस्थितियों के कारण हमें कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं, फिर भी हमें कार्य करना चाहिए क्योंकि अन्य व्यक्ति हैं जिन्हें हमारी सहायता की आवश्यकता है। इसी को लोकसंग्रह कहा गया। लोकसंग्रह की नीति, संसार का कल्याण। जैसा गांधी जी और दीनदयाल उपाध्याय जी ने आग

यज्ञः कर्म समुद्भवः .... तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्

यज्ञः कर्म समुद्भवः .... तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् यज्ञ कर्म का उत्पादन है। यज्ञ का अर्थ है अपने आसपास के लोगों और स्वयं के कल्याणार्थ किया गया कार्य। इस भाव से किया गया प्रत्येक कर्म सर्वव्याप्त ब्रह्म यज्ञ में सदैव प्रतिष्ठित होता है। यानि समर्पित भाव से जब भी कोई कर्म हम करते हैं तो वास्तव में हम उस अनन्त ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति कर रहे होते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे - ”भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - त्याग, समर्पण और सेवा, हम इसकी इन धाराओं में यदि तीव्रता उत्पन्न करेंगे तो शेष सब ठीक हो जाएगा।“ त्याग किसका ? इस आत्मकेन्द्रित अहम् या स्व का, आत्मकेन्द्रित स्व का रूपान्तरण वृहत्तर स्व में व्यक्त होना चाहिए। समर्पण यानि स्व के अहम् का विलीनीकरण किसी श्रेष्ठ के लिए बिना किसी अपेक्षा के साथ। इन भावों से किया गया प्रत्येक कर्म सेवा बन जाता है, हम किसी न किसी का त्याग किये बिना सेवा नहीं कर सकते हैं। यज्ञ की इस धारणा के पीछे यही त्याग, समर्पण और सेवा भाव है। श्री कृष्ण हमें यही बता रहे हैं कि सुदूर प्रतीत होने वाला ब्रह्म हमारे एकदम निकट है, जब हम अपने प्र

नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः

नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः जो भी कार्य आपको कर्तव्य रूप से दिया जाता है, उसे सावधानी से करो, अच्छी तरह करो क्योंकि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है। मान लीजिये हम एक कार्यालय में काम करते हैं, हमारे ऊपर कुछ उत्तरदायित्व हैं तो उन्हें श्रेष्ठता के साथ समय पर भली-भांति पूरा करें-किसी को भी निरीक्षण के लिए आने की आवश्यकता न हो। हमें आत्मसम्मान विकसित करने की आवश्यकता है जिससे हमें दिया गया कार्य अपनी पूरी क्षमता से कर सकें। गीता में कर्म करने पर बल दिया गया, यह कर्म हम योग बुद्धि से करें, यही अपेक्षा है। बिना कार्य किए कुछ भी प्राप्त करने का विचार एक विचित्र दृष्टिकोण है। संस्कृत में एक श्लोक है - उद्योगिनं पुरूषसिंहमुपैति लक्ष्मी, दैवेन देयमिति कापुरूष वदन्ति। दैवं निहत्य कुरू पौरूषं-आत्मशक्या, यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोउत्र दोषः।। लक्ष्मी अथवा सौभाग्य मनुष्यों में उस सिंह के पास आती है जो उद्यमशील है, जो केवल अपने भाग्य के भरोसे रहता है वह कापुरूष है। अतः भाग्य के सभी विचारों को त्यागते हुए अपनी स्वयं की आत्मशक्ति से कर्मशील बनो। आपके स्वयं के सारे प्रयासों क

कर्मयोगो विशिष्यते .......... नैष्कर्मं पुरूषोऽश्नुते

कर्मयोगो विशिष्यते .......... नैष्कर्मं पुरूषोऽश्नुते यदि ज्ञान का मार्ग - सांख्य मार्ग किसी को उच्चतम मोक्ष तक ले जाता है तो कर्म का मार्ग भी किसी को उसी उच्चतम मोक्ष तक ले जाएगा। इन दोनों मार्गों में से कर्म का मार्ग उच्चतर है क्योंकि इससे दोनों फलों की प्राप्ति हेाती है - अभ्युदय और निःश्रेयस - गीता यही बताती है कि किसी विशेष आध्यात्मिक पद्वति को अपनाकर हम अपने प्रत्येक कर्म को अकर्म में बदल सकते हैं। आज की प्रबन्धन तकनीक में यह अध्ययन का एक गंभीर विषय है। अमेरिका के MIT से सम्बन्धित एक चीनी वैज्ञानिक की पुस्तक में लिखा है - ”अनेकों प्रबन्ध तकनीकों से हम सभी समय कार्य करते हैं लेकिन एक विशेष आध्यात्मिक तकनीक द्वारा आप कार्य करते हुए भी कार्य नहीं करते हैं, ऐसी मन की दशा रहती है - शांत व स्थिर-परिणामतः बहुत सा कार्य करने पर भी हम बोझिल अथवा थकान महसूस नहीं करते।“ गीता में कहा गया है कि नैष्कर्म्य यानि कर्मविहीनता कर्म न करने से प्राप्त नहीं की जा सकती। मैं कोई कर्म नहीं करूँगा-यह कर्मविहीनता नहीं - आलस्य है और इस प्रकार के कर्म त्याग से न ही आध्यात्मिक सिद्धि होती है। बेरोजगार व्

प्रसादे सर्वदुःखानां-हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याषु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

प्रसादे सर्वदुःखानां-हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याषु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। शांत, आनंदपूर्ण, स्वतंत्र मन यानि इन्द्रिय दासता से युक्त मन की स्थिति प्रसाद कहलाती है। यह स्थिति प्रशान्ति देती है तथा ऐसे व्यक्ति की बुद्धि निश्चलता को प्राप्त होती हैं यानि बुद्धि सबल रहती है - विवेक जागृत की अवस्था। तब हम किसी अन्य व्यक्ति की समस्या को अपनी ही समसया के समान अनुभव कर उसके अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं, यही आध्यात्मिक विकास है। यही मानवता में देवत्व है। ऐन्द्रिक स्तर पर यही अनुशासन ही योग है। वेदान्त कहता है, हमेशा हर समय भोग के स्तर पर मत रहो, धीरे-धीरे योग के स्तर पर उठो नहीं तो रोगी हो जाओगे। प्रसन्नता, आनंद के तीन स्तर होते हैं - विषयानन्द यानि इन्द्रिय सुख, भजनानन्द-भजन, कीर्तन-समर्पण भाव से उत्पन्न सुख या आनन्द, ब्रह्मानन्द-वह आनन्द जो उस असीम, अमर स्वभाव को जान कर होता है। केवल निषोधात्मक त्यागी दृष्टिकोण से यह स्तर प्राप्त नहीं होता, मन को अन्तर में स्थित आत्मतत्व के साथ भी संयुक्त करना पड़ता है। इसके लिए आत्मानुशासन आवश्यक है न कि थोपा गया अनुशासन। Burtend Russel अपनी पुस्तक

मनुष्य के पतन की प्रक्रिया - ध्यायतो विषयान्पुंसः............बुद्धिनाषात्प्रणष्यति

ध्यायतो विषयान्पुंसः सडघõास्तेषूपजायतें। सघõात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। क्रोधद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाषात्प्रणष्यति।। मनुष्य का कैसे स्खलन होता है, इसी पूरी प्रक्रिया को भगवान इन दो श्लोकों में बता रहे हैं - इन्द्रिय विषयों के बार-बार चिन्तन से उनके प्रति मन में मोह-आसक्ति हो जाती है, आसक्ति होने पर उन्हें प्राप्त करने की ईच्छा जागृत होती है, ईच्छा जागरण से हम उसे प्राप्त करने का प्रयास शुरू करते हैं, प्रयास में बार-बार असफल रहने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से बुद्धि भ्रम उत्पन्न होता है, बुद्धि की भ्रमावस्था से स्मृति भंग होती है जिससे विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है और अंततः विवेक नष्ट होने पर व्यक्ति नष्ट हो जाता है यानि उसका पतन हो जाता है। व्यक्ति का पतन कैसे होता है इसका बड़ा अच्छा प्रसंग रामचरितमानस में नारद विवाह प्रसंग से भी समझा जा सकता है। एक बार नारद जी जब तपस्यारत थे तो कामदेव ने उनकी तपस्या को भंग करने का प्रयास किया जिसमें वो असफल रहे। तब कामदेव ने नारद जी से क्षमा मांगी तथा नारद ने भी उन्हें क्षमा कर दिया। इस

रसवर्जं रसोऽप्यस्य

रसवर्जं रसोऽप्यस्य....... इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ........ तानि सर्वाणि संयम्य ......... कई बार ऐसा होता है कि हम कहते हैं, आज मैं कुछ नहीं खाऊँगा, उपवास रखूँगा, निराहार भी रहते हैं परन्तु मन में अच्छे भोजन की ईच्छा अत्यन्त तीव्र रहती है - यानि इन्द्रियों के विषयों को अपने सामने से हटा देने पर भी रस की लालसा हमारे मन में रहती है। हमारे पुराणों में एक कथा है जिसमें भगवान शिव तपस्या करते हैं - कालिदास के नाटक कुमार संभवम् में इसका सुन्दर वर्णन है - प्रत्यर्थ भूताम् अपि तां समाधेः सुश्रूषमानां गिरीशो अनुमने, विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येवां न चेतांस त एव धीराः - जब पार्वती ने तपस्यारत् शिव की सेवा करने की अनुमति के लिए अनुनय-विनय किया, शिव जानते थे कि यह उनकी तपस्या में बाधक हो सकती है, फिर भी उन्होंने इसकी अनुमति दी। कालिदास कहते हैं, ऐसा शिव कर सके क्योंकि वे धीर थे, बुद्धिमान और सहासी थे, इन परिस्थितियों से भयभीत नहीं थे क्योंकि उनके मन तब भी चंचल नहीं थे, जब चंचल होने की परिस्थितियाँ होती हैं। आगे चलकर शिव ने पार्वती के साथ विवाह भी तब किया जब वो तपस्या की अग्नि में

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते भगवान कह रहे हैं जिसने व्यक्ति के लिए हानिकारक तीन भावुकताऐं - राग, भय, क्रोध यानि लगाव, डर, गुस्सा जीत ली हैं वह व्यक्ति स्थिर बुद्धि वाला मुनि है। ये तीनों भाव एक सीमा के बाद समाज में प्रसन्नता और शांति के लिए हानिकारक हैं। वेदान्त में सभी जगह भय को बुरा माना गया है। हम सामान्यतः बच्चों के विकास क्रम में उनके अंदर भय डालकर प्रशिक्षित करते हैं - भूत का भय, पुलिस का भय, फेल होने का भय आदि आदि। वेदान्त कहता है ‘यह गलत है, बच्चों को अभय में बढ़ने दो।’ स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - ‘अभय एक सद्गुण है, भय पाप है।’ सामान्य भय जैसे यदि बाघ या शेर है तो मैं उसको गले नहीं लगाऊँगा-यह बुद्धिमता है, युक्तिसंगत है, लेकिन अवास्तविक भय जो व्यवहार को असामान्य बना देता है, उससे बचना चाहिए। कई बार हम बच्चों को भय द्वारा नैतिक बनाना चाहते हैं, वेदान्त के चरित्र निर्माण के मनोविज्ञान में इस प्रकार के भय का कोई स्थान नहीं है। वे बालक जो अभय में पलते हैं वे स्वभावतः नैतिक होंगे, जीवन में सहज व स्वाभाविक होंगे। क्रोध पर नियंत्रण करना अत्यन्त कठिन है, फिर भी हमें इस पर

स्थित प्रज्ञ

स्थित प्रज्ञ गीता में कहा गया है कि जब कोई पूर्णतः मन की समस्त द्वन्दों, कामनाओं को, इच्छाओं को छोड़कर अपने ‘स्व’ से ‘स्व’ में ही संतुष्ट हो जाता है, तब वह स्थिथ प्रज्ञ यानि स्थिर बुद्धि युक्त कहा जाता है। आद्य गुरू शंकराचार्य जी अपनी टीका में कहते हैं कि कोई ईच्छा या कामना नहीं करने मात्र से हम स्थित प्रज्ञ नहीं हो जाते। यह एक रोग की स्थिति भी हो सकती है, हो सकता है इस ईच्छा शून्यता में कुछ भी आध्यात्मिकता न हो। ईच्छा शून्यता के साथ-साथ अपने ‘स्व’ से ‘स्व’ में पूर्णतः संतुष्ट रहना भी आवश्यक है। यही सच्चे और सकारात्मक वैराग्य का लक्षण हैं मानव मन तभी परिपक्व होता है जब वह बाहरी काम्य वस्तुओं द्वारा आकर्षित न होकर अपनी सत्य प्रकृति के ज्ञान के आलोक में आगे कार्य करता है। मैं असीम आत्मा हूँ, ये वस्तुऐं मेरे लिए क्या कर सकती हैं। यही स्वाभाविक और सहज वैराग्य की स्थिति है जिसे स्थित प्रज्ञ कहा गया। एक संत को एक बार कोई अपनी सम्पत्ति अपनी मृत्यु से पूर्व दान देना चाहता था, उस संत ने जवाब दिया, मैं तो पहले ही मर चुका हूँ। यानि इन वस्तुओं के प्रति तो मैं पहले से ही मरा हुआ हूँ, अतः मुझे क

योगः कर्मेसु कौशलम्

योगः कर्मेसु कौशलम् गीता का सार्वजनिन संदेश है कि अपना सम्पूर्ण मन, बुद्धि, हृदय को योग में स्थित करना। सांख्ययोग रूपी दूसरे अध्याय का पचासवां श्लोक योग का वर्णन करते हुए कहता है - ‘योगः कर्मसु कौशलम्- कार्यकुशलता और कार्य में निपुणता ही योग - 'Excellence In Work Is Yog’। अध्यात्म को यहाँ कार्य में कुशलता के रूप में परिभाषित किया है-बाहर में उत्पादक कार्य कुशलता और अन्दर में आध्यात्मिक कार्य कुशलता का यह एक मिश्रण है। साधारण भाषा में उत्पादक कार्यकुशलता-एक पहली प्रकार की कार्यकुशलता है। वर्तमान समय में पश्चिम ने इसका अच्छा अभ्यास किया है - Quality Control भी यही है। न्यूनतम श्रम से अधिकतम परिणाम प्राप्त करना-अच्छे कुशल कार्यकर्ता, किसान, श्रमिक, प्रशासक, पेशेवर व्यक्ति आदि। गीता इसके साथ-साथ कार्यकुशलता के दूसर प्रकार पर भी जोर देती है, जिसकी वर्तमान समय में बहुत आवश्यकता है। वह है-आध्यात्मिक कार्यकुशलता-आपके मन पर उस उत्पादक कार्यकुशलता का कैसा प्रभाव पड़ा ? क्या इसने आपको बेहतर, विशुद्धतर और विस्तृत किया ? क्या आध्यात्मिक रूप से विकास हुआ ? आज सर्वदूर दिखाई देता है कि एक प्रश

दूरेण ह्यवरं कर्म बुधियोगाधनन्जय

दूरेण ह्यवरं कर्म बुधियोगाधनन्जय (2.49) भगवान अर्जुन को कह रहे हैं - कामना के साथ किया गया कार्य निश्चित ही अत्यन्त हीन है उसकी अपेक्षा जो कार्य बुद्धि योग द्वारा मन को नियन्त्रित करके किया जाता है। भगवान सभी को कह रहे हैं बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ - बुद्धि की शरण लो। इसी श्लोक को संयुक्त राष्ट्र संघ के एक महासचिव द्वारा सार्वजनिक भाषण में कहा गया। इसके आगे वे कहते हैं कि यदि लोगों ने इस शिक्षा को अपने जीवन व्यवहार में लाया तो यह संसार रहने के लिए एक बेहतर जगह बन जाएगा। वास्तव में बुद्धि योग यानि तर्क, निर्णय और विवेक की क्षमता का विकास है। शरीर में उपस्थित इस उच्च मस्तिष्क प्रणाली का उद्देश्य शरीर के स्वत् संचालित कार्यों को छोड़कर पूरे मानव शरीर का नियन्त्रण और संचालन करना है। हमें तो केवल इस मस्तिष्कीय ऊर्जा का शुद्धिकरण कर, इसे परिष्कृत करना है। अपरिष्कृत मस्तिष्कीय ऊर्जा हमें अशिष्ट चरित्र ही दे सकती हैं जिस प्रकार तेल शोधक कारखानों में हम अपरिष्कृत तेल का शोधन कर उसमें से पैट्रोल, डीजल आदि सुन्दर, उपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार प्रकृति ने एक अद्भुत शोधन कारखाना मनु

योगस्थः कुरु कर्माणकर्माणि - समत्वं योग उच्यते

योगस्थः कुरु कर्माणकर्माणि - समत्वं योग उच्यते भगवद् गीता के दूसरे अध्याय, सांख्य योग के 48वें श्लोक में भगवान अर्जुन को कार्य करते समय मन का दृष्टिकोण कैसा हो, के बारे में बोलते हुए कहते हैं - योग में स्थित होकर अर्जुन, आसक्ति छोड़कर, सफलता व विफलता के प्रति तटस्थ होकर कर्म करो-मन की यह सम स्थिति ही योग है। योग क्या है - समत्वं योग है - स्थिरता - मन का पूर्ण संतुलन। भगवान ने बुद्धि योग का वर्णन करते हुए कहा ही योगस्थः कुरु कर्माणि - योग में स्थित होकर कर्म करो। आसक्ति रहित, सफलता में प्रसन्नता व विफलता में उदासीनता के भाव से मुक्त रहते हुए, मन का ऐसा संतुलन रख कर कर्म करना चाहिए। महाभारत में ही संजय नामक एक युवा राजकुमार की कथा है जो युद्ध में पराजित होकर उदास व अकर्मण्य हो गया। उसकी माँ विदुला उसे समझाती है - उदास मत हो, सफलता-असफलता समुद्र की लहरों के समान आती जाती रहती हैं आगे वे कहती है - मुहूर्त ज्वलितो श्रेयो न तु धूमायितं चिरं - एक क्षण के लिए प्रज्जवलित होकर प्रकाश देना तुम्हारे लिए अच्छा है, युगों तक धुआँ देते जाओ, इसमें क्या आन्द है। अतः श्री कृष्ण कह रहे हैं - योगस्थः क

नेहामिक्रमनाशोऽस्ति - स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्

नेहामिक्रमनाशोऽस्ति - स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् (2.40) भगवान कहते हैं योग बुद्धि के इस महान मार्ग में अधूरे प्रयास का कोई भय नहीं है। सामान्यतः हम कोई कार्य शुरू करते हैं और कुछ कारणों से उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। जब दोबारा उस कार्य को करना है तो कई बार पुनः शुरू से आरम्भ करना पड़ता है परन्तु इस मार्ग में पुनः शुरू करने के लिए आपको आरम्भ में नहीं जाना पड़ता, जहाँ छोड़ा था वहीं से आगे शुरू कर सकते हैं। इसे ही कहा जाता है ‘संचित विकास’ - वास्तव में चरित्र निर्माण की यही मूल प्रकृत्ति है। आगे दूसरी पंक्ति में भगवान कहते हैं - इस धर्म का थोड़ा सा भी पालन, हमें महान भय से बचाएगा। इस चरित्र निर्माण के कार्य में समय लगता है। इसमें अधूरे प्रयास का बेकार जाना नहीं होता। गीता का यही उपदेश है कि, ‘थोड़ा भी कुछ नहीं से अच्छा है’ - यह ऐसा नहीं है कि, या तो सब कुछ हो, अन्यथा कुछ भी नहीं। इस विचार से निराश मत हो कि उस व्यक्ति ने इतना किया है, मुझमे उस जैसी शक्ति नहीं, अतः मैं कुछ नहीं करूँगा। यह उचित दृष्टिकोण नहीं। तुम अपने बल के आधार पर शुरू करो- एक एक कदम, इन्च दर इन्च, इस मनोशार

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भु: मा ते संगोअस्त्वकर्मणि।।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भु: मा ते संगोअस्त्वकर्मणि।। (2.47) भगवान संदेश दे रहे हैं - ”केवल कार्य करने पर तुम्हारा अधिकार है, कार्य के फलों पर नहीं, अतः कार्य से मिलने वाले फल यानि परिणाम को सदैव ध्यान में रखकर कर्म मत करो तथा अकर्मण्य भी मत बनो।“ 4 बातें मुख्य रूप से इसमें कहीं गई हैं - (1) आपका अधिकार केवल कार्य करने में है, (2) परिणाम पर आपका अधिकार नहीं, (3) परिणाम आपके कार्य की प्रेरणा न हो, (4) अकर्मण्य मत बनो। महात्मा गांधी जी अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ में लिखते हैं - ‘कर्म के फल के प्रति अनासक्ति का भाव रखें'। आसक्ति का अर्थ है जुड़ना, मोह रखना, अनासक्ति का, न जुड़ना। इस जगत में हम अकेले नहीं हैं, और भी बहुत लोग हैं - साथ ही सम्पूर्ण सृष्टि भी। उन सबके कार्य का परिणाम हमारे कार्य पर भी होता है - तो उस कार्य के परिणाम-फल पर भी अन्य लोग प्रभाव डालते हैं। यदि हम अपने को समाज से पृथक भी कर लें तो भी अकेले रहकर जो भी कर्म करेंगे उसके परिणाम पर अन्य बाहरी तत्व, वातावरण प्रभाव डालते ही हैं। अतः परिणाम क्या होगा-यह आकलन हम नहीं कर सकते, हाँ-पूर्ण मनोयो

त्रैगुण्यविषया वेंदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन

त्रैगुण्यविषया वेंदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2.45) भगवान अर्जुन को कहते हैं - वेद तीन गुणों के बारे में विचार करते हैं - सत्व, रजस्, तमस् और तुम तीनों गुणों के पार चले जाओ यानि वेदों के भी पार चले जाओ। इस प्रकार की उपलब्धि हमें करनी है - शास्त्रों, पुस्तकों के परे, उस सत्य का अनुभव करके। भारत में प्रत्येक गुरू यही कहेगा - शास्त्रों को लो, उसमें बताए गए सत्य की उपलब्धि का प्रयास करो लेकिन सभी समय केवल पुस्तक पर मत लटकते रहो। अपनी पुस्तक ,'पंचदशी’ में ‘पू0 विद्यारण्य स्वामी’ बताते हैं - ग्रन्थम्भ्यस्य मेधावी ज्ञान विज्ञान तत्परः। पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् ग्रन्थम् अशेषतः।  जैसे कोई व्यक्ति चावल की खोज में है, वह धान को लेता है, उसे कूटता है, भूसी को फेंक देता है और पकाने व खाने के लिए चावल ले लेता है। इसी प्रकार मेधावी व्यक्ति पहले पुस्तकों का अध्ययन करता है, सभी पुस्तकें पढ़ने के बाद यदि ज्ञान प्राप्ति और उपलब्धि उद्देश्य है तो पुस्तकों में से जो ग्रहणीय है उसे लेकर पुस्तकों को छोड़ देता है। त्यजेत् ग्रन्थम् अशेषतः- पुस्तकों पर समस्त निर्भरता को फेंक दो, भारत में यही दृष्टिकोण रह

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ सुख और दुख, लाभ और हानि, विजय और पराजय - इन सब परिस्थितियों को एक मानकर - समान मानना यानि मन को समभाव में रखना - न एक में खुश होना, न दूसरे में दुखी - अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में मन को शांत व स्थिर रखना। यह एक अद्भुत विचार है परन्तु कठिन भी है। इसके लिए सतत् सावधानीपूर्वक जागरूक रहते हुए अभ्यास करना पड़ता है। जब भी हम महान उपलब्धियाँ प्राप्त करना चाहते हैं, तो उत्तेजित अवस्था में उन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता है। आज सामान्यतः हर आदमी उत्तेजित अवस्था में जी रहा है, इस स्थिति को बदलने हेतु इस विचार को एक मौन आन्दोलन में बदलने की आवश्यकता है। डॉ0 राधाकृष्णन जी ने एक जगह अपने भाषण में कहा था आधुनिक स्त्री-पुरूष आज Going about doing good- अच्छे काम को दिखाने में विश्वास करते हैं, लेकिन जब आप निकट जाकर गहराई व सूक्ष्मता से देखते हैं, तो It is more going about than doing good, यह करने की अपेक्षा करते दिखाना फिरना ज्यादा दिखाई देता है। इतनी उत्तेजना, हो-हल्ला और काम कम। जानवर के अन्दर जब भी कोई प्रवृत्ति उभरती है, वह उसके मन को उद्धेलित करके तुरन्त

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते  गीता के सांख्य योग नामक दूसरे अध्याय के 31वें श्लोक में भगवान कहते हैं - ‘एक क्षत्रिय के लिए केवल एक युद्ध से अधिक शुभ कुछ भी नहीं है।’ अर्थात् क्षत्रिय का धर्म लोगों की रक्षा करना हेाता है युद्ध यानि वर्तमान चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ। क्षत्रिय शब्द को यहाँ जातिवाचक शब्द के रूप में लेना उचित नहीं है। वे सभी क्षत्रिय हैं जो आज सांसारिक जीवन व्यवहार में प्रतिदिन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। भगवान आह्वान कर रहे हैं परिस्थितियों से भागो मत - सामना करो - युद्ध करो। हमें अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा की सहायता से संघर्ष कर परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करना है। यह युद्ध है - कर्म युद्ध - धर्म युद्ध। जीवन में श्रेयस्कर युद्ध लड़ने के अवसर आते हैं। हर संघर्ष या युद्ध उचित नहीं, दूसरों को अपने अधीन करने के लिए आक्रमणकारी युद्ध/कर्म कभी श्रेयस्कर नहीं हो सकता। एक कर्मयोद्धा-क्षत्रिय उस युद्ध को लड़ता है जिसके पीछे प्रेरणास्वरूप कोई महान उद्देश्य छिपा होता है। एक क्षत्रिय के लिए अपनी बुद्धि, योग्यता और मानवता के लिए प्रेम को व्यवहार में लान

संकुल प्रमुख कार्यशाला श्रृंखला

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संकुल प्रमुख कार्यशाला श्रृंखला

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत गीता के दूसरे अध्याय ‘सांख्य योग’ में भगवान आत्मा रूपी अविनाशी तत्व के बारे में समझा रहे हैं। 30वें श्लोक में भगवान आत्मा को ‘देही’ कहते हैं - यानि वह जो देह-शरीर में रहता है। नित्यं अवध्योऽयं - कोई भी, कभी भी इस देही को मार नहीं सकता है। देहे सर्वस्य भारत - हे अर्जुन, सभी शरीरों में यह देही-आत्मा अविनाशी है। सांसारिक जीवन में कोई मेरी कमीज ले जाता है, उससे मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता, मैं दूसरी कमीज पहन लेता हूँ। भगवान कहते है। सांसारिक जीवन जीते हुए जो इस परम तत्व को जान लेता है, वह भी इसी प्रकार शरीर का मोह नहीं रखता। व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से जितना शक्तिशाली होगा इस सत्य को जीवन के व्यवहार में व्यक्त करने की उसकी क्षमता उतनी ही अधिक होगी, उसमें अधिक साहस व सहनशीलता आ जाएगी। उदाहरणार्थ - हिटलर की नाजी जेल में एक यहूदी वैज्ञानिक Victor Franki भी कैद था - उन सबको भयंकर दबाव, यातनाऐं, बर्बरता, क्रूरता व पीड़ा में रखा जाता था। उस प्रकार की परिस्थितियों में अनेकों लोग मर गए, यह बचा रहा। बाद में उसने एक पुस्तक लिखी - Man's Search For Meaning - वह ल

तान् तितिक्षस्व भारत

तान् तितिक्षस्व भारत गीता के दूसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान अर्जुन को कहते हैं - हे अर्जुन, ऐन्द्रिक विषयों से सम्पर्क आने पर यह तुम्हें कभी शीत, कभी गर्मी, कभी सुख, कभी दुख का अनुभव देगा, यही प्रकृति है लेकिन वे आते हैं और चले जाते हैं - हमेशा बने नहीं रहते, अतः इन्हें सहन करना चाहिए - तान् तितिक्षस्व भारत। यह एक अद्भुत कथन है - जिसकी चिकित्सा नहीं - उसे सहन करना चाहिए -What can not be cured must be endured, चीजों को सहन करना- तितिक्षा- एक महान क्षमता है- यह व्यक्ति परक है यानि हर मनुष्य में अलग-अलग, किसी के पास अधिक तो कहीं कम। हमें इस क्षमता को अपने अंदर विकसित करना चाहिये। प्रत्येक को जीवन के परिवर्तन और अवसरों को सहन करने के लिए कुछ मानसिक बल विकसित करना चाहिए। एक व्यक्ति भगवान से प्रार्थना कर रहा था-‘हे प्रभु, मेरे अन्दर वह शक्ति, सामर्थ्य दो जिससे मैं जो बदलना चाहता हूँ वह बदल सकूँ, साथ ही वह शक्ति व सामर्थ्य भी दो जिससे मैं जो बदलना चाहता हूँ और बदल नहीं पा रहा तो उसको सहन कर सकूँ।’ सद्गुण, नैतिकता व इस प्रकार के आत्ममनस्थिति के बिना हम नहीं सफल हो पाऐंगे। जब हम सम

मानवीय विकास को दिशा देने में अवतार की भूमिका

मानवीय विकास को दिशा देने में अवतार की भूमिका शाश्वत सत्य रूपी श्रुति, मानव के आध्यात्मिक स्वरूप एवं सत्य की उपलब्धि के लिए उसकी जीवन यात्रा को कभी नहीं भूलना चाहिए। यही सनातन धर्म है, इसी बात पर बल देना एक अवतार का महान अवदान है। कभी-कभी सामाजिक नेता आते हैं, कुछ सामाजिक सुधारों की वकालत कर उन्हें लागू कराते हैं, परन्तु एक अवतार समाज को जरा भी अशान्त नहीं करते। वे समाज में एक नया आदर्श स्थापित करते हैं, जिसके द्वारा हम समझ जाते हैं कि क्या अच्छा, क्या बुरा-इस प्रकार सुधार लागू हो जाते हैं और हम चुपचाप बदलते जाते हैं। यह वह मृदु तथा मौन उपाय है, जिसके द्वारा यह महान आध्यात्मिक पद्वति समाज पर कार्य करती है। काल के प्रवाह में लोगों के दृष्टिकोण सम्बन्धी परिवर्तन के स्वरूप समाज के अधःपतन हो जाता है। काम, क्रोध जैसे अनेकों दोषों के आधिक्य से समाज का नैतिक संतुलन बिगड़ जाता है - विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा क्या कर्तव्य व क्या अकर्तव्य इसके निर्णय की क्षमता आसक्ति के बाहुल्य के प्रभाव में खतम हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में किसी अवतार का अवतरण होता है। वे किसी समाज सुधार का कोई आंदो

क्लैवयं मा स्म गमः - नैतत्व युपपद्यते

क्लैवयं मा स्म गमः - नैतत्व युपपद्यते कुरूक्षेत्र के रण मैदान में शोक व मोह में फंसे अर्जुन को भगवान मनोविज्ञान की दृष्टि से भले ही उपचार कर रहे हों, परन्तु वास्तव में वे हमें ही संबोधित कर रहे हैं। उनका यह सार्वकालिक संदेश मोह, हताशा, शोक आदि में डूबे समस्त मानव जाति के लिए ही है। वे कहते हैं - ”क्लैव्यं - ये नपुसंकता, दुर्बलता, अपौरूषेय विचार तुम्हारे अंदर कहाँ से आ गया। नेतृत्व युपपद्यते - यह तुम्हारे योग्य नहीं हैं, इस प्रकार की हताशा यह तुम्हारे योग्य नहीं है।“ यह संदेश सभी के लिए है - विशेषतः बच्चों को बताना चाहिए - यह कार्य तुम्हारे उपयुक्त नहीं है। तुम इतने अच्छे हो, कुलीन हो, सामर्थ्यवान हो - तो यह व्यवहार तुम्हारे प्रकृति के प्रतिकूल है। जब हम यह किसी को कहते हैं तो इसका अर्थ है कि हम उसको सम्मान दे रहे हैं जो अपने मूल स्वभाव को भूल गया है। यह आग्रह एक सकारात्मक आग्रह है। इस समस्त शिक्षा में असम्मोहित करने का गुण है। कोई दुर्बलता आ गई है जिसने उसके सच्चे स्वरूप को अवरूद्ध कर दिया है। स्वामी विवेकानन्द भी भारतवासियों को संबोधित करते हुए कहते हैं - ”हम बहुत दिन रो चुके, अब औ