स्थित प्रज्ञ
स्थित प्रज्ञ
गीता में कहा गया है कि जब कोई पूर्णतः मन की समस्त द्वन्दों, कामनाओं को, इच्छाओं को छोड़कर अपने ‘स्व’ से ‘स्व’ में ही संतुष्ट हो जाता है, तब वह स्थिथ प्रज्ञ यानि स्थिर बुद्धि युक्त कहा जाता है।
आद्य गुरू शंकराचार्य जी अपनी टीका में कहते हैं कि कोई ईच्छा या कामना नहीं करने मात्र से हम स्थित प्रज्ञ नहीं हो जाते। यह एक रोग की स्थिति भी हो सकती है, हो सकता है इस ईच्छा शून्यता में कुछ भी आध्यात्मिकता न हो। ईच्छा शून्यता के साथ-साथ अपने ‘स्व’ से ‘स्व’ में पूर्णतः संतुष्ट रहना भी आवश्यक है। यही सच्चे और सकारात्मक वैराग्य का लक्षण हैं मानव मन तभी परिपक्व होता है जब वह बाहरी काम्य वस्तुओं द्वारा आकर्षित न होकर अपनी सत्य प्रकृति के ज्ञान के आलोक में आगे कार्य करता है। मैं असीम आत्मा हूँ, ये वस्तुऐं मेरे लिए क्या कर सकती हैं। यही स्वाभाविक और सहज वैराग्य की स्थिति है जिसे स्थित प्रज्ञ कहा गया। एक संत को एक बार कोई अपनी सम्पत्ति अपनी मृत्यु से पूर्व दान देना चाहता था, उस संत ने जवाब दिया, मैं तो पहले ही मर चुका हूँ। यानि इन वस्तुओं के प्रति तो मैं पहले से ही मरा हुआ हूँ, अतः मुझे कुछ नहीं चाहिये। अर्थात् उसने इन वस्तुओं से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई चीज प्राप्त कर ली है-वो है स्वयं की असीम आत्मा के स्वरूप को पहचान कर उसी में संतुष्ट रहता हैं बृहदारण्यक उपनिषद हमें तीन शब्द बताता है - (1) आप्तकाम, (2) आत्मकाम, (3) अकाम। आप्तकाम यानि सभी ईच्छाऐं पूर्ण हो चुकी हैं, पूर्णतः संतुष्ट, आत्मकाम-यानि जब केवल आत्मा को बोध रहता है और ऐसी स्थिति में हम ‘अकाम’ बन जाते हैं यानि ईच्छा रहित। ऐसी स्थिति में वह कहता है, मैं यह छोटा सा शरीर, मन नहीं हूँ - मैं तो असीम, अमरणशील, दिव्य हूँ। जीवन के सीमित स्तरों में भी इसका व्यवहार रूप का प्रयास सम्भव है। बहुधा सामान्य व्यक्ति कहता है, मैं तो एक छोटे स्कूल में प्राईमरी का अध्यापक हूँ, मैं एक मामूली मुनीम हूँ, क्लर्क हूँ, आदि। इस प्रकार का विचार कर हम अपने को एक गलत दृष्टिकोण लेकर तुच्छता तक हीन भावना से ग्रसित होकर छोटा कर लेते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि मैं एक गौरवशाली मृत्यु×जय राष्ट्र भारत का एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में अध्यापक का कार्य कर रहा हूँ। इस स्थिति में हम अपनी पहचान पहले बताते हैं, कार्य बाद में। लेकिन सामान्यतः हम काम पहले रखते हैं और पहचान कहीं नहीं, वह जो छोटा सा काम हम करते हैं उसीको अपनी पहचान बना लेते हैं। कोई भी व्यक्ति छोटा नहीं होता जब तक कि वह स्वयं अपने को छोटा न करे। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में यह दृष्टिकोण व्यक्ति के स्तर पर बहुत अधिक अन्तर डाल सकता है और आध्यात्मिक जीवन में तो अद्भुत रूप से कार्य करता है। मैं असीम आत्मा हूँ, ईश्वर की संतान हूँ-यह पहचान बना लेने से ईच्छाओं का त्याग करना सख्त हो जाता है। स्थित प्रज्ञ होने के लिए यही शिक्षा है।
ब्रिटिश दार्शनिक बट्रेंड रसेल Impact of Science on Society में पृष्ठ 120-21 पर लिखते हैं - ”हम एक दौड़ के बीच में हैं, मानव ज्ञान एक साधन के रूप में, और मानवीय त्रुटियाँ साध्य के रूप में। जब तक मनुष्य बुद्धि में उतना ही विकास नहीं कर लेता जितना कि ज्ञान में, ज्ञान की वृद्धि शोक की वृद्धि होगी।“
कई बार हम देखते हैं कि संकट के समय पलायन करते समय लोग या तो सारा सामान छोड़ देते हैं या कुछ लेकर चलते भी हैं तो रास्ते की कठिनाईयों में बीच में छोड़ जाते हैं और अंततः व्यक्ति ही सम्पत्ति के रूप में गन्तव्य तक पहुंचता है या संकट काल में ही हमें यह मान होता है कि अन्तिम मूल्य केवल व्यक्ति का है न कि सम्पत्ति का। एक कहानी में एक व्यक्ति अपना घर रेत पर बनाता है जो बार-बार तेज हवाओं में गिर जाता था, वहीं एक व्यक्ति अपना घर मजबूत चट्टान पर बनाता है जो तेज हवाओं में भी नहीं गिरता। इसी प्रकार जब हम अपने पूरे जीवन को आत्मारूपी चट्टान पर खड़ा करते हैं तो कोई थपेड़ा उसे हिला नहीं सकता है। उच्च आध्यात्मिक चेतना का विकास बड़ी से बड़ी रिश्वत की राशि को ठुकरा सकती है। ऐसे व्यक्ति ही सदैव आत्मन्येवात्मना तुष्टः यानि आत्मा में ही आनंदित रहने वाले स्थित प्रज्ञ हैं। आदि शंकराचार्य जी विवेक चूड़ामणि में श्लोक 543 में कहते हैं -
निर्घनोऽपि सदा तुष्टोडप्यसहायो महाबलः।
नित्यतृप्तोऽप्यभु×ज्नोऽप्यसमः समदर्शनः।।
वह व्यक्ति एक असाधारण व्यक्ति है, जोकि यद्यपि उसके पास कोई धन नहीं, शक्ति नहीं, साधन नहीं, फिर भी प्रसन्न है, आनंदमय है, यद्यपि कोई उसका सेवक नहीं, फिर भी वह असीम रूप से शक्तिशाली है, यद्यपि वह कोई ऐन्द्रिक सुखों का उपभोग नहीं करता, फिर भी वह संतुष्ट है, यद्यपि वह अतुलनीय है, फिर भी सबको समान देखता है।
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