ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रहैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।। (4.24)

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रहैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।। (4.24)


अर्पण की प्रक्रिया ब्रह्म है, अर्पित किया गया सामग्री घृत आदि ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही ब्रह्म की अग्नि में अर्पित किया गया है, इसके द्वारा, जो ब्रह्म कर्म की समाधि में है, उसे केवल ब्रह्म तक ही पहुँचना है। ब्रह्म कर्म समाधि यानि ब्रह्म की भांति कर्म करने वाला, ऐसा व्यक्ति जानता है कि जो कुछ भी वह करता है, वह और कुछ नहीं केवल दिव्य है। यही वेदान्त सत्य है कि इस ब्रह्माण्ड में सर्वदूर केवल ब्रह्म ही है - असीम, अद्वैत शुद्ध चैतन्य - सब उसीकी अलग-अलग रूप में अभिव्यक्ति है।National Geographic पत्रिका (September 1948) में प्रकाशित एक निबन्ध The Sun is the Great Mother में लेखक Thomas R Henry कहते हैं, हम अपने भोजन में और इसके पाचन में भी सूर्य खाते हैं, हम अपने वस्त्रों में सूर्य पहनते हैं, हम सूर्य को अपने कोयले, पेट्रोल आदि में काम में लेते हैं, और इस वाक्य से अन्त करते हुए कि - विशेष रूप से गुँथे हुए हैं जीवन और प्रकाश के धागे।
इसी सत्य को हमारे ऋषियों ने समझा है। सूर्य को हम ‘पूषन’ भी कहते हैं, पूषन यानि वह जो पुष्ट करता है। सूर्य भौतिक रूप से दृश्य वस्तु है, परन्तु हमारे ऋषियों ने उसके पीछे की आध्यात्मिक चेतना को भी देखा। हम इसी तथ्य को स्मरण करने हेतु भोजन के समय इस श्लोक को बोलते हैं। श्री कृष्ण आगे चलकर गीता के 15वें अध्याय के 14वें श्लोक में कहते हैं - मैं सभी प्राणियों के अमाशय में पाचन की अग्नि रूप में जठराग्नि हूँ। यह एक एवं अद्वैत, समस्त ब्रह्माण्ड उस ब्रह्म के ही विभिन्न रूप हैं, उसी प्रकार जैसे प्रत्येक वस्तु स्थूल रूप में सूर्य का विकीरण है, जल, हिम, पत्थर, पौधा, आदि। यही सत्य है, किसी पंथ विशेष का मत नहीं। यदि हम सभी वस्तुओं की संरचना के जितने जड़ में, मूल में जाऐंगे, यह ही पाऐंगे कि सब एक ही स्त्रोत से उत्पन्न हुए हैं। विज्ञान हमें यही बताता है कि समस्त वस्तुओं का मूल वही समान जीन पदार्थ है, वही इलैक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन आदि की विभिन्न संरचनाऐं हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे - ‘प्रत्येक आत्मा/वस्तु अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वश में करके सबमें उपस्थित इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का परम लक्ष्य है।’
भगवान श्री कृष्ण आगे चलकर हमें एक उच्च आध्यात्मिक हवन करने का आह्वान करते हैं - अपने छोटे अहं को इस ब्रह्म की ज्ञानाग्नि में रखकर जला दो, शेष केवल ब्रह्म रह जाएगा, इसी के परिणाम स्वरूप हम उच्च चरित्र एवम् सेवा भाव का जागरण करने में सफल हो सकते हैं। भगवान हम सबको इस प्रकार की मानस पूजा करने की प्रेरणा दे रहे हैं - यह पूर्ण आत्म नियंत्रण का भाव योग की अग्नि से ही उत्पन्न होगा। इसी सत्य को बार-बार स्मरण करते रहना जब तक कि यह व्यवहार में परिलक्षित न हो अन्यथा यह केवल एक कर्मकाण्ड मात्र बन कर रह जाएगा।

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