नेहामिक्रमनाशोऽस्ति - स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्
नेहामिक्रमनाशोऽस्ति - स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् (2.40)
भगवान कहते हैं योग बुद्धि के इस महान मार्ग में अधूरे प्रयास का कोई भय नहीं है। सामान्यतः हम कोई कार्य शुरू करते हैं और कुछ कारणों से उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। जब दोबारा उस कार्य को करना है तो कई बार पुनः शुरू से आरम्भ करना पड़ता है परन्तु इस मार्ग में पुनः शुरू करने के लिए आपको आरम्भ में नहीं जाना पड़ता, जहाँ छोड़ा था वहीं से आगे शुरू कर सकते हैं। इसे ही कहा जाता है ‘संचित विकास’ - वास्तव में चरित्र निर्माण की यही मूल प्रकृत्ति है।
आगे दूसरी पंक्ति में भगवान कहते हैं - इस धर्म का थोड़ा सा भी पालन, हमें महान भय से बचाएगा। इस चरित्र निर्माण के कार्य में समय लगता है। इसमें अधूरे प्रयास का बेकार जाना नहीं होता। गीता का यही उपदेश है कि, ‘थोड़ा भी कुछ नहीं से अच्छा है’ - यह ऐसा नहीं है कि, या तो सब कुछ हो, अन्यथा कुछ भी नहीं। इस विचार से निराश मत हो कि उस व्यक्ति ने इतना किया है, मुझमे उस जैसी शक्ति नहीं, अतः मैं कुछ नहीं करूँगा। यह उचित दृष्टिकोण नहीं। तुम अपने बल के आधार पर शुरू करो- एक एक कदम, इन्च दर इन्च, इस मनोशारीरिक ऊर्जा प्रणाली को काम में लेते हुए अपना महान चरित्र बनाओ। योग बुद्धि, विवेक की योग्यता-बुद्धि का धीरे-धीरे विकास। बुद्धि हमारी बुद्धिमता है, विवेक ईच्छा और इसमें सभी भावनायें सुन्दर समन्वय के साथ मिलती है। ”बुद्धि शरणमन्विच्छा“ बुद्धि में शरण लो। बुद्धि अनिवार्यताः तर्क है, लेकिन शुष्क मानसिक तर्क नहीं अपितु वह तर्क जो भावुकता से, भावनाओं से प्रबल हुआ है। समस्त प्रेरक तत्व भावुकता और भावनाओं से आते हैं न कि मस्तिष्क से और उसके बाद आती है प्रभाव की शक्ति के साथ इच्छा। इन तीनों के मिलन से ही मानव विकास का अद्भुत साधन मिल जाता है जिसे बुद्धि कहते हैं, यानि बुद्धि = तर्क + भावुकता व भावना + ईच्छा, इसे विकसित करने का थोड़ा सा भी प्रयास परिणाम लाता है। सामान्यतः मन हजारों दिशाओं में भटका होता है, मन की एकाग्रता के प्रयास में हमें एकीकृत मानसिक ऊर्जा के विकास का प्रयास करना पड़ता है। मन की ऊर्जाओं के एकीकरण का यह कार्य सतत् चलते रहना चाहिए - असावधानी के कारण यदि व्यवधान आया तो भी पुनः जागरूक होकर सतत् करते रहना - यही बात भगवान समस्त मानव जाति को समझा रहे हैं। मानवीय शिक्षा का यही उद्देश्य होना चाहिए, कुछ पाठ्य पुस्तकें पढ़कर परीक्षा देना मात्र नहीं - यह तो शिक्षा का केवल बाह्य रूप है। वास्तविक शिक्षा तो मन का विकास है। जो चाहिए वह है आध्यात्मिक विकास - यानि अपने आसपास के लोगों के प्रति शुद्ध सात्विक प्रेम और सेवा की भावना तथा उस क्षमता में बढ़ोत्तरी। नीति यह हो कि न्यूनतम कर्मकाण्ड और अधिकतम चारित्रिक विकास। केवल कर्मकाण्डों में उलझे रहना विकास नहीं है। बृहदरण्यक उपनिषद में एक क्रान्तिकारी वक्तव्य है - ‘वेदो अवेदो भवति’ - जब कोई सत्य की प्राप्ति कर लेता है तो वेद की आवश्यकता नहीं रहती, उसका मूल्य उसके लिए समाप्त हो जाता है। यह भारत की ही विशेषता है - वेदों के प्रति अत्यधिक सम्मान के बावजूद, यहाँ हमें बताया जाता है कि वेदों के भी परे जाना है।
Comments
Post a Comment