प्रकतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति

प्रकतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति


हमारे अंदर और बाहर समस्त प्रकृति ही है। यह शरीर-इन्द्रिय-मन समूह उसी पदार्थ का विकास है जिससे कि बाह्य प्रकृति विकसित हुई है| हम इस बाह्य प्रकृति द्वारा एक सामान्य पशु की भांति रहने को बाध्य हैं, हमें यह सहन करना होगा। हमारे मन-इन्द्रियों को नियंत्रण करने वाली यह बाह्य अपरा प्रकृति हमें कर्म करने को बाध्य करती है। बाह्य प्रकृति से नियंत्रित होने के कारण इन्द्रियों  की वृत्ति बाह्य जगत की ओर उन्मुख रहती है , मन भी इन्द्रियों का अनुसरण करता हुआ बाहर के सुखों की ओर जाता है, ऐसा करते हुए हम अपने अंदर एक विशेष प्रकार का स्वभाव निर्माण कर लेते हैं जिन्हें आन्तरिक वृत्तियाँ, संस्कार या वासनाऐं कहते हैं। अपरा प्रकृति से नियंत्रित होने के कारण व उसके प्रबल आवेग में ज्ञानी व्यक्ति भी अवश होकर एक विशेष दिशा में खिंच जाता है। परन्तु ज्ञानी व्यक्ति अपने सतत् अभ्यास से परा शक्ति का उपयोग कर बेहतर और पूर्णतर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। भगवान कहते हैं लोग प्रकृति की प्रवृत्तियों का अनुगमन करते हैं, अतः केवल इनका निग्रह क्या कर सकता है? हम प्रकृति की इन शक्तियों को दबा नहीं सकते। यह उपाय नहीं है। हमें उन्हें शिक्षित करना होगा, इन वृत्तियों को नीतिगत, नैतिक व आध्यात्मिक दिशा देनी होगी।
मनुष्य के अंदर इस बाह्य और आन्तरिक प्रकृति के अलावा कुछ और भी है, ‘स्व’-दिव्य आत्मा। वह आत्मा जो शरीर-मन से मुक्ति की एक इच्छा के रूप में व्यक्त हो रही है-मैं अपने जीवन को अपने हाथों में लेकर उसे गढ़ना चाहता हूँ, मैं नहीं चाहता कि प्रकृति उसे गढ़े। सभी नैतिक जीवन, सभी संस्कृतियाँ, सभी सभ्यताऐं जड़ और चेतना के संघर्ष से निकलती हैं। मैं अपने स्वयं की सत्य प्रकृति पर बल देना चाहता हूँ जिसका स्वभाव शुद्ध चैतन्य है। जब यह बाह्य जड़ प्रकृति बलशाली होती है तो हम बहक जाते हैं। एक ज्ञानी व्यक्ति को भी यह दबाव झेलना पड़ता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरायली ने कहा, ”यूरोपवासी प्रगति की बात करता है क्योंकि कुछ वैज्ञानिक खोजों की सहायता से उसने एक ऐसा समाज बनाया है जो गलती से आराम को सभ्यता समझता है।“ वास्तव में क्योंकि हम अधिक आराम से हैं, हम अधिक सभ्य हैं - यह सही नहीं है, कुछ उच्चतर है जो हमें प्रकट करना है। विश्राम का जीवन सही अर्थों में सभ्यता का जीवन नहीं है।
भारतीय विचार मानव जीवन को चार स्तरों पर विभाजित करता है - ब्रह्मचर्य - विद्यार्थी जीवन, गृहस्थ - विवाहित जीवन, वानप्रस्थ - कार्यावकाश का जीवन, सन्यास - वैराग्य का जीवन। अन्तिम दो गहन रूप से उच्चतर आयाम के बारे में है, पहले दो में भी हालांकि हमें इस उच्चतर आयाम के बारे में कुछ करना होता है, परन्तु इनमें जीवन के संघर्ष इतने तीव्र होते हैं कि इस पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते हैं। जीवन के तीसरे प्रहर में हम यह विचार अधिक तीव्रता से कर पाते हैं कि, क्या मैंने स्वयं को गुणात्मक रूप से समृद्ध किया है ? यदि हम दूसरे स्तर की गतिविधि को तीसरे व चौथे स्तर में लेकर जाते हैं तो उसका परिणाम व्यक्तित्व की अवनति ही होगा। हम क्योंकि प्रकृति को नष्ट नहीं कर सकते अतः उसको इस भारतीय परम्परा के अनुसार दिशा देकर नियमन कर सकते हैं, मानव प्रकृति के प्रति हिंसा के बिना हम प्रकृति को शिक्षित करते हैं, कोई निरोध नहीं है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड कहते हैं - ”आपकी चेतना जिसे पसन्द नहीं करती, आप उसे मन में दबा लेते हैं तो यह उपचेतन या अचेतन मन में चला जाता है। वहाँ से यह बदले हुए रूप में, अनेक प्रकार की मानसिक विकृतियों और प्रवृतियों के रूप में व्यक्त होते हुए विकृत व्यवहार के रूप में उभरती है।“ अतः श्रीकृष्ण कहते हैं - दमन कोई उपाय नहीं है, इन ऊर्जाओं को शिक्षित कीजिये, इनकी दिशा बदल दीजिए।

Comments

Popular posts from this blog

चाणक्य और मोदी

What is Accessnow.org?

Why Hindu temples r controlled by Government?