दूरेण ह्यवरं कर्म बुधियोगाधनन्जय
दूरेण ह्यवरं कर्म बुधियोगाधनन्जय (2.49)
भगवान अर्जुन को कह रहे हैं - कामना के साथ किया गया कार्य निश्चित ही अत्यन्त हीन है उसकी अपेक्षा जो कार्य बुद्धि योग द्वारा मन को नियन्त्रित करके किया जाता है। भगवान सभी को कह रहे हैं बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ - बुद्धि की शरण लो। इसी श्लोक को संयुक्त राष्ट्र संघ के एक महासचिव द्वारा सार्वजनिक भाषण में कहा गया। इसके आगे वे कहते हैं कि यदि लोगों ने इस शिक्षा को अपने जीवन व्यवहार में लाया तो यह संसार रहने के लिए एक बेहतर जगह बन जाएगा। वास्तव में बुद्धि योग यानि तर्क, निर्णय और विवेक की क्षमता का विकास है। शरीर में उपस्थित इस उच्च मस्तिष्क प्रणाली का उद्देश्य शरीर के स्वत् संचालित कार्यों को छोड़कर पूरे मानव शरीर का नियन्त्रण और संचालन करना है। हमें तो केवल इस मस्तिष्कीय ऊर्जा का शुद्धिकरण कर, इसे परिष्कृत करना है। अपरिष्कृत मस्तिष्कीय ऊर्जा हमें अशिष्ट चरित्र ही दे सकती हैं जिस प्रकार तेल शोधक कारखानों में हम अपरिष्कृत तेल का शोधन कर उसमें से पैट्रोल, डीजल आदि सुन्दर, उपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार प्रकृति ने एक अद्भुत शोधन कारखाना मनुष्य को अनुभव के रूप में इस मानव प्रणाली के अन्तर्गत दिया है। कच्चा अनुभव लो, उसका शोधन करो और फिर उससे चरित्र की सुन्दर वस्तुऐं जैसे-प्रेम, करूणा, समर्पण, कार्य में दक्षता, शान्ति, सहनशीलता आदि को बाहर By Product के रूप में भेजो। आज सारे संसार में शिक्षा के विचार और व्यवहार में इस अनुभव के शोधन का बहुत कम अंश है। परिणामतः हम ‘फलहेतवः’ बन जाते हैं, अर्थात् अपने लिए फल प्राप्ति की कामना द्वारा संचालित। उस समय हमारे विचारों में सामूहिकता का कोई स्थान नहीं होता है। बुद्धि योग के अभ्यास से हम अपने साथ-साथ दूसरों के कल्याण की भी ईच्छा रख सकते हैं। यह बुद्धि सबसे अधिक आत्मा या ब्रह्म के निकट है। आदि शंकराचार्य जी इसे ‘नेदिष्ठं ब्रह्म-ब्रह्म के निकटतम’ कहते हैं। कठोपनिषद में एक रथ का सुन्दर विधान मिलता है। मानव जीवन परिपूर्णता की यात्रा है। दो प्रकार की यात्राऐं - बाहरी यात्रा, जिसके लिए शरीर रथ है, इन्द्रिय घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है और आत्मा रथी है। इसी यात्रा के संदर्भ में एक आन्तरिक यात्रा भी है - उच्च आध्यात्मिक चरित्र और उपलब्धियाँ-यह कठोपनिषद के तृतीय अध्याय में (1.3,3) है। बुद्धि पूरी यात्रा की नियंत्रक और निर्देशक है-इसी के पास दूरदृष्टि, Far sight और पूर्वदृष्टि Fore Sight की क्षमता है, इन्द्रियों के पास नहीं, मन के पास बहुत थोड़ी मात्रा में। बुद्धि की इसी क्षमता को बुद्धिमता कहा जाता है। भगवान कृष्ण की भांति भगवान बुद्ध भी कहते हैं - बुद्धं शरणम् गच्छामि - बुद्धि की शरण में जाओ। बुद्धि द्वारा नियंत्रित हो, न कि इन्द्रिय अथवा मन द्वारा। वेदान्त की इस शिक्षा का सार ‘सर जूलियन हक्सले’ के एक वाक्य में मिलता है-”आधुनिक विज्ञान को, अब वह जैसा है अर्थात् प्रकृति की सम्भावनाओं के विज्ञान में से मानवीय संभावनाओं के विज्ञान में विकसित होना चाहिए।“ एक कार्यरत व्यक्ति के रूप में, मेरे मन और हृदय के विकास के लिए और अन्तर्निहित अनन्त सम्भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उस कार्य को कैसे उपयोग में लूँ-एक मनुष्य के लिये यही बुद्धि योग की वास्तविक शिक्षा है।
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