प्रसादे सर्वदुःखानां-हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याषु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

प्रसादे सर्वदुःखानां-हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याषु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।


शांत, आनंदपूर्ण, स्वतंत्र मन यानि इन्द्रिय दासता से युक्त मन की स्थिति प्रसाद कहलाती है। यह स्थिति प्रशान्ति देती है तथा ऐसे व्यक्ति की बुद्धि निश्चलता को प्राप्त होती हैं यानि बुद्धि सबल रहती है - विवेक जागृत की अवस्था। तब हम किसी अन्य व्यक्ति की समस्या को अपनी ही समसया के समान अनुभव कर उसके अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं, यही आध्यात्मिक विकास है। यही मानवता में देवत्व है। ऐन्द्रिक स्तर पर यही अनुशासन ही योग है। वेदान्त कहता है, हमेशा हर समय भोग के स्तर पर मत रहो, धीरे-धीरे योग के स्तर पर उठो नहीं तो रोगी हो जाओगे।
प्रसन्नता, आनंद के तीन स्तर होते हैं - विषयानन्द यानि इन्द्रिय सुख, भजनानन्द-भजन, कीर्तन-समर्पण भाव से उत्पन्न सुख या आनन्द, ब्रह्मानन्द-वह आनन्द जो उस असीम, अमर स्वभाव को जान कर होता है। केवल निषोधात्मक त्यागी दृष्टिकोण से यह स्तर प्राप्त नहीं होता, मन को अन्तर में स्थित आत्मतत्व के साथ भी संयुक्त करना पड़ता है। इसके लिए आत्मानुशासन आवश्यक है न कि थोपा गया अनुशासन। Burtend Russel अपनी पुस्तक Kingdom of Happiness में लिखते हैं कि “आपको प्रसन्नता मिल सकती है जब आप अपने जीवन में तीन सामंजस्यों की उपलब्धि करते हैं - (1) अपने और समाज के बीच सामन्जस्य, (2) बाह्य प्रकृति से सामंजस्य, (3) अपने स्वयं के मन के साथ सामंजस्य। हमें अपने जीवन में क्या चाहिये, यह हमें ही तय करना है - कोई और हमारे लिए नहीं कर सकता। विवेकचूड़ामणि में आदि शंकराचार्य जी बताते हैं - ऋणमोचन कर्तारः पितुः सन्ति सुतादयः, बन्ध मोचन कर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चनः - क्षुधाधिकृतं दुखं तु विना स्वेन न केनचित्। - यदि पिता पर ऋण है तो पुत्र या कोई और चुका सकता है, यदि मेरे सिर पर बड़ा बोझ है तो कोई भी आकर हल्का कर सकता है परन्तु यदि कोई भूखा है तो उसे स्वयं ही खाना पड़ेगा, अन्य कोई उसके बदले खा उसकी भूख नहीं मिटा सकता। इसलिए-
वस्तु स्वरूपं स्फुटबोध चक्षुषा स्वेनैव वेद्यं
किसी भी वस्तु के स्पष्ट स्वरूप को समझने के लिए हमें स्वयं ही स्पष्ट तर्क या विवेक दृष्टि को विकसित करना होगा-कोई और यह कार्य हमारे लिए नहीं कर सकता - वो हमारी सहायता हेतु अनुकूल परिवेश, परिस्थिति मात्र ही उपलब्ध करा सकता है, स्कूल, कॉलेज, अध्यापक आदि की यही भूमिका है।

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