ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम्। मम् वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (4.11)

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम्।
मम् वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (4.11)


स्त्री और पुरूष जिस किसी प्रकार से मेरी पूजा करते हैं, उसी प्रकार से मैं उनकी इच्छाऐं पूरी करता हूँ, यह मेरा मार्ग है, जिस पर, हे अर्जुन, सभी प्रकारों से लोग चलते हैं। जो भी मार्ग कोई स्त्री/पुरूष चुनता है, वे सब मार्ग मेरी ओर ही आते हैं, मार्ग अनेक लेकिन मंजिल एक-इसी पर बल दिया है - समन्वय का अद्भुत दृष्टिकोण है। भगवान कह रहे हैं कि मुझ तक पहुँचने का कोई एक निश्चित मार्ग नहीं है, कोई भी किसी भी रास्ते से आकर मुझ तक पहुँच सकता है। यह समन्वय का भाव भारतीय संस्कृति का अत्यन्त महान योगदान है, जो किसी प्रकार की व्यवहारिकता या नीति के कारण नहीं आया, अपितु एक व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि व दार्शनिक समझ से आया है। कोई एक निश्चित मानक मार्ग नहीं, इस प्रकार का कोई धर्म-मत-पंथ सम्बन्धी मानक नहीं, यही विचार ऋगवेद के इस कथन में भी प्रकट होता है - ”एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति-सत्य एक है, विद्वान लोग इसे अनेक नामों से पुकारते हैं।“ ‘यतो मत, तथो पथ’ - जितने मत होंगे, उतने ही पथ/सम्प्रदाय होंगे। अतः समन्वय, सामन्जस्य का प्रयास करना चाहिए, परस्पर संघर्ष नहीं। हमारी यह समन्वयकारी दृष्टि किसी मजबूरी के कारण सहन करने हेतु नहीं है, अपितु एक दूसरे के मत, विचार को परस्पर सम्मान देने के दर्शन से अनुप्राणित है, अतः हम Tolerating Others के बजाय Mutual Respect की बात करते हैं। हम सभी धर्मों का सम्मान करने वाले लोग हैं। इस दृष्टिकोण के द्वारा हमने अन्तर धार्मिक सम्बन्धों के प्रति एक सकारात्मक दिशा की स्थापना की है। इसी दृष्टि को स्वामी विवेकानन्द जी, 1893 की शिकागो धर्म संसद में 11 सितम्बर को गुँजायमान करते हैं - ”मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति, दोनों की शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति न केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार भी करते हैं।“
गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमारी संस्कृति के इसी मुख्य विषय को उद्घोषित कर रहे हैं - धर्म जगत में समन्वय। पूरे विश्व में यह दृष्टि न होने के कारण आज जगह जगह धर्म के विवाद ही असहनशीलता, यातना, हिंसा और युद्ध के कारण बन गए हैं। परन्तु भारत में इसी आध्यात्मिक दृष्टि का व्यवहार समान्यतः होने के कारण हमने पूरे विश्व भर के पीड़ित धर्मानुयायीयों जैसे यहूदी, पारसी आदि को शरणागति दी। भारत छोड़ शेष विश्व में हमें इस समन्वय, सहिष्णुता के दर्शन को समझाने व सिखाने की आवश्यकता है क्योंकि यह दृष्टि उनकी स्वाभाविक दृष्टि नहीं है। उनका मानना है - ”यदि मैं अति धार्मिक हूँ तो मैं र्ध्मान्ध हूँ, यदि मैं धार्मिक नहीं हूँ तो उदार हो सकता हूँ। एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में मैं कभी उदार नहीं हो सकता।“ भारत में यह स्थिति विपरीत है। पृथ्वी की सुरक्षा व विश्व की शांति के लिए हमें हमारे भविष्य को समन्वय, सामंजस्य, सहिष्णुता और समझ की दिशा में ही ले जाना होगा। USSR के अंतिम राष्ट्रपति Mikhail Gorbachev को तत्कालीन ईंग्लैण्ड की प्रधानमंत्री Margaret Thatcher यही कहती हैं - "Why don't you consult your old friend India who in spite of so many diversities is still one", आज पूरे विश्व को भारत से विविधताओं के बीच समन्वय रखने की इस दृष्टि को सीखने की आवश्यकता है, लेकिन इसके लिए भारत को एक महाशक्ति बनना ही पड़ेगा क्योंकि कमजोर  की कोई नहीं सुनता।

Comments

Popular posts from this blog

चाणक्य और मोदी

What is Accessnow.org?

Why Hindu temples r controlled by Government?