योगस्थः कुरु कर्माणकर्माणि - समत्वं योग उच्यते

योगस्थः कुरु कर्माणकर्माणि - समत्वं योग उच्यते


भगवद् गीता के दूसरे अध्याय, सांख्य योग के 48वें श्लोक में भगवान अर्जुन को कार्य करते समय मन का दृष्टिकोण कैसा हो, के बारे में बोलते हुए कहते हैं - योग में स्थित होकर अर्जुन, आसक्ति छोड़कर, सफलता व विफलता के प्रति तटस्थ होकर कर्म करो-मन की यह सम स्थिति ही योग है।
योग क्या है - समत्वं योग है - स्थिरता - मन का पूर्ण संतुलन। भगवान ने बुद्धि योग का वर्णन करते हुए कहा ही योगस्थः कुरु कर्माणि - योग में स्थित होकर कर्म करो। आसक्ति रहित, सफलता में प्रसन्नता व विफलता में उदासीनता के भाव से मुक्त रहते हुए, मन का ऐसा संतुलन रख कर कर्म करना चाहिए। महाभारत में ही संजय नामक एक युवा राजकुमार की कथा है जो युद्ध में पराजित होकर उदास व अकर्मण्य हो गया। उसकी माँ विदुला उसे समझाती है - उदास मत हो, सफलता-असफलता समुद्र की लहरों के समान आती जाती रहती हैं आगे वे कहती है - मुहूर्त ज्वलितो श्रेयो न तु धूमायितं चिरं - एक क्षण के लिए प्रज्जवलित होकर प्रकाश देना तुम्हारे लिए अच्छा है, युगों तक धुआँ देते जाओ, इसमें क्या आन्द है। अतः श्री कृष्ण कह रहे हैं - योगस्थः कुरु कर्माणि-चेतना के योग के स्तर से काम करो। हमें अपनी चेतना को योग के स्तर पर ले जाने का अभ्यास करने को कहा है। प्रत्येक कार्य चेतना के स्तर से ही आते हैं - एक अपराधी के कार्य की प्रेरणा का चेतना का स्तर बहुत निम्न होता है, उदार हृदय व्यक्ति के चेतना के स्तर से। योग की स्थिति यानि चेतना के उच्चतम स्तर पर पहुँचना जहाँ मन की स्थिति सम हो यानि संतुलित। प्रत्येक अनुभव मन को एक लहर, छोटी लहर, बड़ी लहर में फेंक देता है - हमें लहर निर्माण को नियंत्रित करने की अपनी सुप्त शक्ति के जागरण का प्रयास करना चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम परिस्थितिगत प्राणी हैं - कोई कहे रोओ, तो रोने लगते हैं, कोई कहे हंसो तो हंसने लगे - मानो मेरी काई स्वतंत्रता ही नहीं है, जो मुझे जैसा निर्देशित करे, वैसा मैं करने लग जाता हूँ। मैं मुस्कुराऊँगा जब मैं चाहूँ, न कि जब कोई मुझे निर्देशित करे - यही स्वतंत्रता है। गीता की समस्त शिक्षा मानवीय स्वतंत्रता के इसी सत्य पर आधारित है। शरीर के अन्दर शीतोष्ण संतुलन, Thermostatic Equilibrium की व्यवस्था है, जब कार्य के श्रम से यह संतुलन बिगड़ता है तो यह स्वतः अपने पूर्ववत संतुलन में आ जाता है - यही Homeostatic स्थिति है। इसी शारीरिक होमियोस्टेटिक अवस्था को मानसिक स्तर पर लेकर जाने की आवश्यकता है। प्रसिद्ध फ्रांसिसी शारीरिक विज्ञानी क्लॉड बर्नार्ड ने कहा - ”एक स्थिर आन्तरिक परिवेश स्वतंत्र जीवन की शर्त है।“ कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के शिक्षक सर जोसेफ बारक्रोफ्ट को उद्धत करते हुए ग्रे-वॉल्टर अपनी पुस्त्क The Living Brain में लिखते हैं - ”कितनी बार मैंने शांत झील में अनगिनत लहरों को देखा है जो एक चलती हुई नौका के कारण बनती हैं - लेकिन झील पूर्णतः शांत होनी चाहिए - एक अशांत परिवेश में जिसमें स्थिरता नहीं है, उसमें उच्च बौद्धिक विकास खोजना वैसे ही है जैसे तूफान ग्रस्त समुद्र की सतह पर छोटी लहरों की परस्पर टकराव से उत्पन्न आकृतियों को देखने का प्रयास करना।“ सभी प्रकार का बौद्धिक विकास, सृजनात्मक विकास और आध्यात्मिक विकास के लिए मानव मन का स्थिरीकरण आवश्यक है - मन का यह स्थिरीकरण ही योग है - जो शांतता और संतुलन पर आधारित है यानि मन के होमियोस्टेसिस का विकास अपने प्रयासों के आधार पर करना चाहिए। हमारी आध्यात्मिक परम्परा में दो शब्दों द्वारा यह आन्तरिक होम्योस्टेसिस अभिव्यक्ति होता है - ‘शम’ और ‘दम’ - शम यानि मन का अनुशासन, दम यानि इन्द्रिय विषयों का अनुशासन। इन दो सद्गुणों के निरन्तर अभ्यास से ही स्थिरता - समत्वं की स्वाभाविक स्थिति आ सकती है। यह समत्वं के योग की स्थिति कोई जादू चमत्कार नहीं है - यह व्यवहारिक है तथा कोई भी इसे शम और दम के अभ्यास से प्राप्त कर सकता है - यह कठिन अवश्य है लेकिन अव्यवहारिक नहीं। भारत में अनेकों ऐसे महान गुरू हुए जिन्होंने अत्मनिर्भरता का यह मार्ग सिखाया - वे कहते हैं-सरल जीवन की तलाश मत करो, कठोर परिश्रम करो। 4-5 वर्ष की आयु के बच्चों में भी थोड़ा-थोड़ा समत्वं का अभ्यास शुरू कराना चाहिए - शम व दम का अभ्यास। एक अमेरिकी लेखक ने कहा - ‘अपना मन किसी और की जेब में रखना सबसे दुर्भाग्यपूर्व है अतः इसे अपनी जेब में रखना सीखीये।’ अतः छोटी आयु से ही मन के इस प्रशिक्षण का अभ्यास शुरू होना चाहिए - यही अनेकों समस्याओं की रामबाण औषधि है।

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