त्रैगुण्यविषया वेंदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन

त्रैगुण्यविषया वेंदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2.45)


भगवान अर्जुन को कहते हैं - वेद तीन गुणों के बारे में विचार करते हैं - सत्व, रजस्, तमस् और तुम तीनों गुणों के पार चले जाओ यानि वेदों के भी पार चले जाओ। इस प्रकार की उपलब्धि हमें करनी है - शास्त्रों, पुस्तकों के परे, उस सत्य का अनुभव करके। भारत में प्रत्येक गुरू यही कहेगा - शास्त्रों को लो, उसमें बताए गए सत्य की उपलब्धि का प्रयास करो लेकिन सभी समय केवल पुस्तक पर मत लटकते रहो। अपनी पुस्तक ,'पंचदशी’ में ‘पू0 विद्यारण्य स्वामी’ बताते हैं -

ग्रन्थम्भ्यस्य मेधावी ज्ञान विज्ञान तत्परः।

पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् ग्रन्थम् अशेषतः।

 जैसे कोई व्यक्ति चावल की खोज में है, वह धान को लेता है, उसे कूटता है, भूसी को फेंक देता है और पकाने व खाने के लिए चावल ले लेता है। इसी प्रकार मेधावी व्यक्ति पहले पुस्तकों का अध्ययन करता है, सभी पुस्तकें पढ़ने के बाद यदि ज्ञान प्राप्ति और उपलब्धि उद्देश्य है तो पुस्तकों में से जो ग्रहणीय है उसे लेकर पुस्तकों को छोड़ देता है। त्यजेत् ग्रन्थम् अशेषतः- पुस्तकों पर समस्त निर्भरता को फेंक दो, भारत में यही दृष्टिकोण रहा है। भगवान भी गीता के छठे अध्याय में कहते हैं - ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्मातिवर्तते - तब भी जब तुम आध्यात्मिक जीवन के प्रति जिज्ञासु हो, तुम पवित्र पुस्तकों के क्षेत्र से बाहर निकल जाओ।’ तुम्हें उनकी आगे आवश्यकता नहीं। केवल समस्या या विषय को समझने के लिए पुस्तक आवश्यक है। प्रयोग करने वाले व्यक्ति बनने के पश्चात् पुस्तकों के विद्यार्थी बने रहने की आवश्यकता नहीं - अपने अनुभवों से आगे बढ़ो। पुस्तकें आरम्भ करने के लिए तो उपयोगी हैं, केवल पुस्तकीय ज्ञान की विद्वता, धर्म व शिक्षा का उद्देश्य नहीं है। श्रीरामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं - ‘बिना आध्यात्मिक रूझान और अभ्यास के विद्वानों का व्यवहार गिद्धों जैसा होता है, ऊपर आकाश में ऊँचे उड़ते हुए भी उनकी दृष्टि जमीन पर पड़ी हुई लाशों पर ही होती है।’ व्यवहारिक जीवन में बिना प्रयोगों से प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभवों के शुष्क पुस्तकीय ज्ञान देना यह हमारी परम्परा नहीं है - वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इस ओर की कमी को दूर करने की आवश्यकता है जो आज Experiential Learning के रूप में एक नए क्लेवर में हमारे सामने आ रही है।

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