अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते
भगवान कह रहे हैं कि प्रकृति के गुण ही समस्त कार्य करते हैं, अहंकार द्वारा भ्रमित समझ के कारण मनुष्य सोचता है, ”मैं कर्ता हूँ।“ हमारे द्वारा किए जा रहे समस्त कर्म, गतिविधियाँ वास्तव में प्रकृति के तीन गुण-सत्व, रजस् व तमस्, के कारण होती हैं, लेकिन अज्ञानी लोग प्रकृति द्वारा प्रदत्त अहं भाव के कारण सोचते हैं कि मैं कर्ता हूँ।
आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक विचार प्रकृति को केवल बाह्य रूप में जानता व मानता है, परन्तु वेदांत के अनुसार मनुष्य में दोनों प्रकृति है - बाह्य प्रकृति एवं अन्दरूनी प्रकृति का उच्चतर आयाम जो बुद्धिमता में व्यक्त होता है। निम्न जड़ बाह्य प्रकृति को ‘अपरा प्रकृति’ और उच्चतर आन्तरिक प्रकृति को ‘परा प्रकृति’ कहा जाता है। उदाहरणतः हम खाना खाते हैं तो सोचते हैं कि खाने का निर्णय मैंने लिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह प्रकृति ही हमें खाना खाने को बाध्य करती है। प्रकृति की ये शक्तियाँ हमसे कर्म करवाती हैं - चेतन मन, अहंकार द्वारा अधीनस्थ होकर अधिकांशतः उपचेतन Subconscious और अचेतन Unconscious मन की सेवा में होता है। प्रकृति मन को संचालित करती है और हमारा अहं सोचता है कि वह स्वतंत्र है। आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा हम अपनी परा प्रकृति को जान कर इस अहं भाव से मुक्त हो सकते हैं। जब हम आध्यात्मिक रूप से जागृत होते हैं, तो प्रकृति के इन कार्यों को नियंत्रित करने में सफल होते हैं तथा उन्हें नैतिक, नीतिगत तथा मूल्यों पर आधारित बनाते हैं। जानवरों में प्रकृति पूर्ण वर्चस्व रखती है, लेकिन मानव में यह नियंत्रित की जा सकती है। धर्म और अध्यात्म के विज्ञान का सम्पूर्ण विषय मनुष्य को प्रकृति के दासत्व से स्वतंत्र कराने के बारे में ही है। जाग्रत अहं निद्रा में मर जाता है, स्वपन में स्वप्नलोकीय अहं उदित होता है तथा गहन निद्रा में दोनों ही अहं लुप्त हो जाते हैं। अहं के पीछे आत्मा है, हमारी स्वयं की दिव्य प्रकृति जो समस्त स्वतंत्रता व मूल्यों की स्त्रोत है। जब हम यह जान लेते हैं तो प्रकृति की सीमाओं के पार हो जाते हैं।
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