एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः


यह दर्शन जिसे योग कहा जाता है, गुरू शिष्य परम्परा द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा तथा राजर्षियों ने इसे जाना। शंकराचार्य जी कहते हैं, ”रजानश्च् ते ऋषियश्च् इति राजर्षिः“ - वे जो राजा और ऋषि दोनों एक ही रूप में है, राजर्षि कहलाते हैं। श्री कृष्ण यह दर्शन उन सब लोगों के लिए दे रहे हैं जो शक्ति और उत्तरदायित्व की स्थिति में हैं, वे सभी राजा हैं क्योंकि शक्ति का प्रयोग करते हैं, वे सब ऋषि भी हैं क्योंकि वे इस योग दर्शन का अनुसरण भी करते हैं, उनके पास आध्यात्मिक प्रेरणा भी है, अतः वे सभी राजर्षि हैं।
भगवान इस श्लोक में आगे कहते हैं - योगो नष्टः, काल के प्रवाह में यह योग नष्ट हो गया यानि खो गया। शंकराचार्य जी अपनी टीका में बताते हैं कि योग कैसे खो गया - ”दुर्बलान् अजितेन्द्रियान् प्राप्य योगो नष्टः - जब यह योग दुर्बल व्यक्तियों के हाथों में पड़ा तो खो गया। दुर्बल लोग यानि शारीरिक रूप से दुर्बल, मानसिक रूप से दुर्बल, अजितेन्द्रियान्-बिना इन्द्रियों के अनुशासन वाले लोगों के हाथों में पड़कर यह क्रमशः क्षीण होता चला गया, अर्थात् राजर्षियों की कमी हो गई। जब हम सम्भ्यताओं के इतिहासों पर दृष्टि डालते हैं तो ध्यान में आता है कि लोग जब जीवन और धर्म को वीरोचित भाव में लेते थे तो उन्होंने आश्चर्यजनक कार्य किए, सृजनात्मक कार्य किए, समृद्ध संस्कृति व सभ्यता का निर्माण किया। बाद में मन की थकान आ गई, दुर्बलता आ गई, धर्म में मिलावट करने लगे, अध्यात्म का भाव कम होकर केवल कर्मकाण्ड हावी हो गया, उच्चतर चरित्र लुप्तप्राय होकर इन्द्रियों का प्रभाव बढ़ गया, तब योग क्षीण हुआ और सभ्यताऐं व संस्कृतियों का पराभव हुआ। धर्म की व्याख्या गलत तरीकों से हुई-वास्तव में धर्म में कुछ भी गोपनीय नहीं होता, कुछ गहन अवश्य होता है। राजर्षियों का अभाव संस्कृतियों के लिए घातक होता है। कालक्रम में राजर्षि केवल राजा मात्र रह गए। सत्ता हाथ में रखना आसान है, किन्तु उससे समुचित रूप से काम में लेना कठिन है। शक्ति, Power पर लिखी अपनी पुस्तक में Burtend Russel, Ethics Of Power नामक अध्याय में लिखते हैं - ‘शक्ति के प्रति प्रेम, यदि उसे लाभप्रद होना है, तो यह शक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य से जुड़ी होनी चाहिये।’ केवल अन्य उद्देश्य होना मात्र पर्याप्त नहीं है बल्कि उद्देश्य ऐसा हो जो दूसरों के कल्याण में सहायक हो। शक्ति का यह दिशा प्रवाह जिसे Russel ने उल्लेखित किया, वेदान्त इसे आध्यात्मिक विकास का फल कहता है, जो राजर्षियों को प्राप्त होता है। आज वर्तमान की प्रमुख समस्या यही है कि अलग अलग प्रकार की बहुत सी शक्तियाँ बहुतों के पास है। परन्तु उनमें आध्यात्मिक साधना की कमी है। अतः शक्तियों के दुरूपयोग के बहुत उदाहरण हमें सार्वजनिक, व्यक्तिगत जीवन में चारों ओर दिखाई देते हैं। प्रजातंत्र का उद्देश्य सर्वसाधारण को सबल बनाने का है परन्तु राजर्षित्व के भाव का अभाव उन्हें दुर्बल ही रखना चाहता है। महाभारत के शान्ति पर्व में राज धर्म पर भीष्म द्वारा युद्धिष्ठर को दिए गए उपदेश लोगों के कल्याण के लिए शक्ति के उपयोग पर ही केन्द्रित है। जब हम शक्ति को पचा नहीं पाते तो मदान्ध हो जाते हैं। महाभारत में एक महत्वपूर्ण श्लोक है -
विद्यामदो धनमदः तृतीयोऽमिजनोमदः,
एते मद अवलिप्तानां एत एवं सतां दमाः -
पहला, मद या मदान्धता विद्या से आती है (विद्या मद), दूसरा है धन मद, तीसरा है अभिजन मद यानि वंश के श्रेष्ठता का मद। ये मद हैं, मदान्धताऐं केवल अभद्र, कुसंस्कृत लोगों के लिए हैं लेकिन उच्च बुद्धि के, सुसंस्कृत लोगों के लिए ये ही मद ‘दम’ हो जाते हैं। दम यानि पूर्ण आत्म नियंत्रण, पूर्ण स्वानुशासन-जहाँ सब शक्तियों से उत्पन्न अहं भाव को पूर्णतया पचा लिया गया है। योग शक्ति सभी शक्ति को पचाने में सहायक है अतः उसके अभ्यासी के लिए सभी मद ‘दम’ हो जाते हैं। शंकराचार्य जी कहते हैं - ‘क्षत्रियाणां बलाद्यानाय, जनान् परिपिपालयितुं’ - शक्ति धारकों को शक्ति, बल चाहिए ताकि वो सामान्य जन - स्वयं को बड़ा अनुभव कर सकें - यानि उनका कल्याण हो - यही प्रजातंत्र की वास्तविक पहचान है। बाहुबल, बुद्धिबल वालों को योगबल भी अपने अंदर विकसित करने का प्रयास करना चाहिए - यही राजर्षित्व की संकल्पना है। सेवा की भावना केवल विशुद्ध आत्मबल से ही प्राप्त होती है - यही आध्यात्मिक विकास है, जिसे आधुनिक काल में मनोसामाजिक विकास भी कहते हैं।

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