काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।

काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।


भगवान कह रहे हैं, यह काम है, कभी न तृप्त होने वाली इच्छा और यह क्रोध है, ये मनुष्यों में रजोगुण से उत्पन्न होते हैं, ये अत्यन्त वासनापूर्ण एवम् बड़े पापी हैं, इन्हें तुम अपना शत्रु ही जानो।
काम एक महान शब्द है, इसे दो दृष्टिकोणों से लिया जाता है। ‘अकामस्य क्रिया नास्ति’ - अन्दर काम या इच्छा के न रहने पर कोई भी बिल्कुल कार्य नहीं कर सकता है। सभी कर्म काम द्वारा ही प्रेरित होते हैं। समाज में कोई ऐसे लोग हैं जो गंदगी में रहते हैं, विद्यालय है लेकिन पढ़ने नहीं जानते - क्योंकि उनके मन में बेहतर जीवन जीने की कामना ही खत्म हो गई है। अतः ऐसे लोगों के लिए तो पहला पाठ यही है कि उनमें इच्छा जगाई जाए। अतः जीवन का पहला स्तर काम है। इसी प्रकार क्रोध भी आवश्यक है - सामाजिक दुर्व्यवहार के प्रति समुचित कोप आवश्यक है। लेकिन उन्हें अनुशासन और नियंत्रण की आवश्यकता है, ये अंधी शक्तियाँ हैं। इसके बाद शिक्षा आती है, जिसमें नीतिगत और नैतिक चेतना के द्वारा मूल्यों के प्रति चेतना, जागरूकता सम्मिलित है। उस स्तर पर हमसे काम व क्रोध के नियंत्रण की अपेक्षा की जाती है, जब वे सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं।
वेदान्त प्रत्येक मनुष्य के छह शत्रुओं की बात करता है, जो उसके अंदर हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहंकार) और मात्सर्य (ईर्ष्या)। केवल मनुष्य ही इन्हें अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से नियंत्रित कर पराजित कर सकता है। इनमें यदि काम व क्रोध पर नियंत्रण कर लिया तो बाकी चार पर नियंत्रण करना आसान हो जाता है। श्री कृष्ण कहते हैं - ये रजोगुण की अधिकता से होते हैं जो पहले से ही मनुष्य में है। पहले है तमस-जड़ता जिसमें आप न अच्छा करते हैं, न बुरा, निर्जीवता रहती है - सम्पूर्ण तमस की स्थिति में। परन्तु जैसे ही रजस प्रकट होता है - यह अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी, अच्छा रहने पर मनुष्य के अंदर सेवा के लिए सक्रियता बढ़ती है, लेकिन जब बुरा बढ़ता है तब काम और क्रोध प्रकट होते हैं। अतः हमें एक बालक को तमस् से अच्छे रजस् की ओर बढ़ने की शिक्षा देनी चाहिये। साथ ही उसे इन दोनों को नियंत्रित करने का भी तरीका सिखाना चाहिए। इसी प्रकार बाकी शेष चार शत्रुओं के बारे में भी सोचना चाहिए, तभी हम आज के उपभोक्तावादी उन्माद को नियंत्रित कर पाऐंगे। श्रीकृष्ण गीता में आगे चलकर कहते हैं - इस रजस् को सत्व द्वारा क्षीण कीजिये। इसे उच्चतर आयाम दीजिये, तभी यह ऊर्जा आपके माध्यम से सैंकड़ो का भला कर सकेगी। सत्व के हावी होने पर मनुष्य शांत, स्थिर, सौम्य और करूणामय हो जाता है।
श्रीमद् भागवत में राजा ययाति की कथा है, जिसके मन में अनियंत्रित कामनाऐं थी - भोग करने की तीव्र लालसा में वह अपने वृद्धावस्था के बदले अपने पुत्र का यौवन ले लेता है - परन्तु इस शरीर के वृद्ध हो जाने के बावजूद उसकी ईच्छाऐं खत्म नहीं होती - न जातु कामः कामानाम् उपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवं अभिवर्धते - ईच्छापूर्ति द्वारा इच्छा शांत नहीं होती, ये और बढ़ती जाती हैं जैसे घी के डालने पर अग्नि बढ़ती है।
अमेरिका में द्वितीय महायुद्ध के बाद हूवर समिति आयोग का गठन, तात्कालिक आर्थिक वृत्तियों के अध्ययन के लिए किया गया था। उस रिपोर्ट में कहा गया, ”मानव इच्छाऐं अन्तहीन हैं। कोई नई इच्छाऐं नहीं हैं जो कि और नई इच्छाओं को जन्म नहीं देंगी, जैसे ही उन्हें संतुष्ट कर लिया जाये।“ ऐन्द्रिक तुष्टि मानव स्तर पर विकास क्रम का उद्देश्य नहीं है। यह विकास क्रम के मानव स्तर से पूर्व के भाग का उद्देश्य है। मनुष्य संसद में पारित किसी कानून द्वारा नैतिक नहीं बनाया जा सकता, यह महान पाठ हमें शिक्षा ही सिखा सकती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ”शिक्षा का अर्थ है, मनुष्य में निहित पूर्णता का प्रकटीकरण।“ आज मन इन्द्रियों का सेवक है, इस स्थिति को उलटना चाहिए कि मन इन्द्रियों को निर्देशित करे - यही सीखना शिक्षा का असली कार्य है। संक्रमण बुद्धि से नहीं इन्द्रिय प्रणाली से आता है।

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