धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते
गीता के सांख्य योग नामक दूसरे अध्याय के 31वें श्लोक में भगवान कहते हैं - ‘एक क्षत्रिय के लिए केवल एक युद्ध से अधिक शुभ कुछ भी नहीं है।’ अर्थात् क्षत्रिय का धर्म लोगों की रक्षा करना हेाता है युद्ध यानि वर्तमान चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ। क्षत्रिय शब्द को यहाँ जातिवाचक शब्द के रूप में लेना उचित नहीं है। वे सभी क्षत्रिय हैं जो आज सांसारिक जीवन व्यवहार में प्रतिदिन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। भगवान आह्वान कर रहे हैं परिस्थितियों से भागो मत - सामना करो - युद्ध करो। हमें अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा की सहायता से संघर्ष कर परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करना है। यह युद्ध है - कर्म युद्ध - धर्म युद्ध। जीवन में श्रेयस्कर युद्ध लड़ने के अवसर आते हैं। हर संघर्ष या युद्ध उचित नहीं, दूसरों को अपने अधीन करने के लिए आक्रमणकारी युद्ध/कर्म कभी श्रेयस्कर नहीं हो सकता। एक कर्मयोद्धा-क्षत्रिय उस युद्ध को लड़ता है जिसके पीछे प्रेरणास्वरूप कोई महान उद्देश्य छिपा होता है। एक क्षत्रिय के लिए अपनी बुद्धि, योग्यता और मानवता के लिए प्रेम को व्यवहार में लाने के लिए कोई और अच्छा अवसर नहीं हो सकता, इसके अतिरिक्त कि वह ऐसे युद्ध में भाग ले जिनसे मानवीय मूल्य, स्वतंत्रता और व्यक्ति का महत्व स्थापित हो। भगवान आगे चलकर गीता में कहते हैं युद्ध से भागना, परिस्थितियों से डरकर पलायन करना मृत्यु के समान है। अंग्रेजी में कहा जाता है Death before Dishonour, असम्मान से पूर्व मृत्यु। आज इस आत्मसम्मान का भाव कम हो रहा है - धन या कुछ स्वार्थों की पूर्ति हेतु हम अपमान सहने को भी तैयार हो जाते हैं, लेकिन सदाचारी सम्मान चाहते हैं, वे धन से उसका विनिमय नहीं करते। कोलकाता के स्वर्गीय चितरंजन दास जी का उदाहरण हमारे सामने हैं - निर्धनता के कारण जिनके पिता का निधन ऋण और दिवालीयेपन में हुआ था। बड़े होने पर वकील बन पहले ही मुकदमे से जो धन उन्हें मिला तो सबसे पहला काम उन्होंने जो किया वो यह था कि वे न्यायालय गए और दिवालीयेपन के असम्मान से अपने स्वर्गीय पिता का नाम उन्होंने हटवाया, हालाँकि इसके लिए वो बाध्य नहीं थे। इसलिए भगवान अर्जुन के माध्यम से हमको कहते हैं - ”तस्मादुतिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृतनिश्चयः“ (2.37) - हे अर्जुन, उठो और निश्चय पूर्वक युद्ध करो। मानो श्रीकृष्ण हमें कह रहे हैं - संकल्प करो, मैं भागूंगा नहीं, मैं इस समस्या का सामना करूँगा, इस निश्चय के साथ उठो। ये दिन प्रतिदिन की समस्याऐं हमारे लिए युद्ध की प्रकृति के समान ही हैं - हमें उन्हें जीतना है। एक मनुष्य के नाते दुनिया को हमें दिखा देना चाहिए कि हम वातावरण-परिस्थितियों के स्वामी हैं-उनके अनुगामी नहीं - इसी में हमारा पुरूषार्थ हैं| राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी लिखते हैं - ”चोटें खाकर बिफरो, कुछ और तनो रे, योगियों नहीं विजयी के सदृश्य जियो रे।।“ यह जीवन कठोर परिश्रम करने के लिए है, दुर्बल-आलसी या सोने वालों के लिए नहीं। एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक में यही संदेश है - उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणी न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
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