योगः कर्मेसु कौशलम्

योगः कर्मेसु कौशलम्


गीता का सार्वजनिन संदेश है कि अपना सम्पूर्ण मन, बुद्धि, हृदय को योग में स्थित करना। सांख्ययोग रूपी दूसरे अध्याय का पचासवां श्लोक योग का वर्णन करते हुए कहता है - ‘योगः कर्मसु कौशलम्- कार्यकुशलता और कार्य में निपुणता ही योग - 'Excellence In Work Is Yog’। अध्यात्म को यहाँ कार्य में कुशलता के रूप में परिभाषित किया है-बाहर में उत्पादक कार्य कुशलता और अन्दर में आध्यात्मिक कार्य कुशलता का यह एक मिश्रण है।
साधारण भाषा में उत्पादक कार्यकुशलता-एक पहली प्रकार की कार्यकुशलता है। वर्तमान समय में पश्चिम ने इसका अच्छा अभ्यास किया है - Quality Control भी यही है। न्यूनतम श्रम से अधिकतम परिणाम प्राप्त करना-अच्छे कुशल कार्यकर्ता, किसान, श्रमिक, प्रशासक, पेशेवर व्यक्ति आदि। गीता इसके साथ-साथ कार्यकुशलता के दूसर प्रकार पर भी जोर देती है, जिसकी वर्तमान समय में बहुत आवश्यकता है। वह है-आध्यात्मिक कार्यकुशलता-आपके मन पर उस उत्पादक कार्यकुशलता का कैसा प्रभाव पड़ा ? क्या इसने आपको बेहतर, विशुद्धतर और विस्तृत किया ? क्या आध्यात्मिक रूप से विकास हुआ ? आज सर्वदूर दिखाई देता है कि एक प्रश्न सभी पूछ रहे हैं - इतना अच्छा कार्यकुशल व्यक्ति आज टूटा हुआ, तनावग्रस्त, एकाकी व्यक्ति क्यों बन गया ? उसके कार्य ने उसका भला तो नहीं किया। यहीं पर इसका उत्तर है कि इमने उत्पादक कार्यकुशलता का तो विचार किया परन्तु उसके दूसरे आयाम आध्यात्मिक कार्यकुशलता को भूल बैठे-आज के तनावग्रस्त, एकाकी कार्यकुशल व्यक्ति के इस स्थिति का यही कारण है। गीता कहती है कि जैसे ही हम कार्य करते हैं तो हम समाज के लिए वरदान बन जाते हैं - अपने ईमानदार, कार्यकुशल, सहकारी परिश्रम से, परन्तु हमें यह देखना है कि हमारा आन्तरिक जीवन गुणात्मक रूप से भी धनी, आनन्द से परिपूर्ण, शान्ति से पूर्ण, प्रेम से पूर्ण और मानवता के प्रति सद्भावपूर्ण हो रहा है - यही आध्यात्मिक विकास है। आज Quantity के साथ-साथ Quality के बारे में भी सोचना पड़ेगा। वर्तमान में समस्त कार्यकुशलता केवल उत्पादन की मात्रा और उपभोग की मात्रा पर ही बल देते रहे, और उपभोग जीवन की आवश्यकताओं से आगे बढ़कर जीवन के विलासिताओं की पूर्ति से भी आगे निकल अब एक पागल उपभोक्तावाद के रूप में स्थापित हो गया है, जिसका परिणाम मनुष्य की गुणात्मक निर्धनता है। ब्रिटिश शरीर शास्त्री Sir Julian Huxley - 1959 में Darwin शताब्दी समारोह के अवसर पर वैज्ञानिकों के शिकागो सम्मेलन में अपने भाषण The Evolutionary Vision में इस विषय की चर्चा करते हैं - ”भौतिक उत्पादन की मात्रा एक निश्चित सीमा तक निश्चित रूप से आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति को एक निश्चित मात्रा से ज्यादा कैलोरी या टी.वी. या धुलाई की मशीन न केवल अनावश्यक है बल्कि बुरी है। भौतिक उत्पादन की मात्रा किसी आगे आने वाले साध्य की साधना है, न कि अपने आप में एक साध्य हैं।“
वास्तव में कार्यकुशल काम और मिलजुल कर काम, Team Work ये सब हमारे राष्ट्रीय चरित्र की महत्वपूर्ण मांग है। हमें भारत में यह विशेष रूप से ध्यान रखना होगा कि उत्पादक कार्यकुशलता की ओर बढ़ते हुए हम अपनी इस आध्यात्मिक सम्पदा के आध्यात्मिक गुण को बनाए रखें। भगवद् गीता सांसारिक व आध्यात्मिक जीवन के बीच खाई नहीं बनाती। भारतीय प्रशासनिक सेवा का यह योगः कर्मसु कौशलम्-आदर्श वाक्य है , Motto - यह केवल प्रशासकों के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए है। भगवान सबको कह रहे हैं - योगी बनो। योगी यानि बाह्य परिवेश का परिवर्तन मात्र नहीं - आंतरिक परिवेश का भी परिवर्तन-इसका थोड़ा सा भी अंश चमत्कार ला देगा। लक्ष्मी कार्यकुशल श्रम का, सहकारी श्रम का उत्पाद है और सरस्वती कार्यकुशलता (दोनों प्रकार) प्राप्त करने का माध्यम है - इसीलिए कहा जाता है सरस्वती की आराधना के पश्चात् ही लक्ष्मी आती है। स्वामी विवेकानन्द जी ने विशेष बल दिया था कि लक्ष्मी सरस्वती की उत्पाद है। यदि आर्थिक समृद्धि आती है और हमारे मन-बुद्धि में निर्धनता है, तो वह एक त्रासदी ही होगी। वे जिन्होंने उत्पादक कार्यकुशलता में प्रवीणता के साथ-साथ उच्च चारित्रिक विकास भी कर लिया है-सार्वजनिक भाव, सेवा भाव, समर्पण से युक्त है - ऐसे लोग समाज की सबसे बड़ी धरोहर हैं। इस प्रकार के लोगों का अधिकाधिक संख्या में निर्मिति - यही भगवद् गीता का उद्देश्य है।

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