कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भु: मा ते संगोअस्त्वकर्मणि।।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भु: मा ते संगोअस्त्वकर्मणि।। (2.47)


भगवान संदेश दे रहे हैं - ”केवल कार्य करने पर तुम्हारा अधिकार है, कार्य के फलों पर नहीं, अतः कार्य से मिलने वाले फल यानि परिणाम को सदैव ध्यान में रखकर कर्म मत करो तथा अकर्मण्य भी मत बनो।“ 4 बातें मुख्य रूप से इसमें कहीं गई हैं - (1) आपका अधिकार केवल कार्य करने में है, (2) परिणाम पर आपका अधिकार नहीं, (3) परिणाम आपके कार्य की प्रेरणा न हो, (4) अकर्मण्य मत बनो।
महात्मा गांधी जी अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ में लिखते हैं - ‘कर्म के फल के प्रति अनासक्ति का भाव रखें'। आसक्ति का अर्थ है जुड़ना, मोह रखना, अनासक्ति का, न जुड़ना। इस जगत में हम अकेले नहीं हैं, और भी बहुत लोग हैं - साथ ही सम्पूर्ण सृष्टि भी। उन सबके कार्य का परिणाम हमारे कार्य पर भी होता है - तो उस कार्य के परिणाम-फल पर भी अन्य लोग प्रभाव डालते हैं। यदि हम अपने को समाज से पृथक भी कर लें तो भी अकेले रहकर जो भी कर्म करेंगे उसके परिणाम पर अन्य बाहरी तत्व, वातावरण प्रभाव डालते ही हैं। अतः परिणाम क्या होगा-यह आकलन हम नहीं कर सकते, हाँ-पूर्ण मनोयोग से कार्य करना-यह हमारे अधिकार क्षेत्र में हैं इसके दूसरे पक्ष को देखें तो कार्य करने का जो भाव हमारे समक्ष है वह सामाजिक हित का भाव प्रस्तुत करता है - मानवीय विकास का - मेरे द्वारा किए गए कार्यों का लाभ मिलने वालों में एक मैं हूँ, अन्यों पर भी इसका प्रभाव होगा। स्वामी रामकृष्ण जी के शब्दों में ‘कच्चा मैं, पक्के मैं, में विकसित होना चाहिए। अतः अनासक्ति किससे ? - अपने अहम् से, उस छोटे मैं से। हमें ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ का भाव अपने अंदर विकसित करना चाहिए। समुद्र में तैरते कई हिम खण्डों - Icebergs के बारे में हमने सुना है। क्या ऊपर दिख रहा हिम खण्ड-जितना ही उस हिम खण्ड का आकार है। नहीं, उससे कई गुना बड़ा भाग समुद्र में अंदर होता है। इसी प्रकार मनुष्य की ऐन्द्रिक दृष्टि में अहम् एक छोटी सी वस्तु है, लेकिन जब हम उसकी गहराई में जाते हैं, तो यह अपना अनन्त स्वरूप प्रकट कर सकती है। छान्दोग्य उपनिषद की शिक्षा है - ‘तत् त्वं असि’ - तुम वही हो। तुम यह क्षुद्र अहम् मात्र नहीं हो, तुम वह असीम चेतना - ब्रह्म हो। इस आलोक में इस श्लोक का अध्ययन एक नया ही आयाम प्रस्तुत करता है - स्व के असीम आयाम की खोज। किसी भी जानवर में ‘मैं’ का यह भाव नहीं रहता, केवल मनुष्यों में ही यह है। अपने अज्ञानवश हम अपना कार्य इस अहम् की अस्थायी भ्रान्ति पर आधारित होकर करते हैं। जाग्रत अवस्था में यह शक्तिशाली है परन्तु सो जाने के पश्चात् यह मैं नहीं रहता। सोने की अवस्था में कोई हमें कुछ कहे तो हम कोई क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं करते। यह वैसा ही है जिसे विज्ञान में तटस्थ होना या वस्तु परक होना कहते हैं। यदि हमें किसी वस्तु का सत्य जानना है तो हमको अपने इस अहम् को अपनी खोजबीन से हटाना होगा - यदि अहम् रहा तो वह सदैव वस्तुओं को गलत रूप से समझेगा। जब हम अहम् यानि स्व के विचार का विस्तार करते हैं, तब अन्यों के साथ आध्यात्मिक एकता का अनुभव करते हैं। अतः मैं कुछ भी काम करूँ, इसका फल केवल मेरे लिए नहीं है, यह सभी को मिलेगा। आज सामान्यतः दो प्रकार की प्रवृत्ति सर्वदूर दिखाई देती है - (1) काम के फलों पर हमारे एकाधिकार की प्रवृत्ति, (2) अकर्मण्य बने रहने की प्रवृत्ति। भारत में सारी आध्यात्मिकता होते हुए भी, हम सामाजिक संदर्भ में कई बार विफल रहते हैं - सार्वजनिक सम्पत्ति किसी की भी नहीं, उसका दुरूपयोग होना-नष्ट होना-हम सहन कर लेते हैं। भगवान बुद्ध कहते हैं - ‘यह लघु स्व केवल एक भ्रान्ति है। पृथक स्व में विश्वास सभी बुराईयों की जड़ है।’ जब हम समाज बन कर रहते हैं तो मैं अपने कार्यों के फलों का स्वामी नहीं हो सकता। कार्य के परिणाम के प्रति स्वकेन्द्रित भाव ने हमें स्वार्थी बना दिया, हमारी प्रगति अवरूद्ध कर दी। और इसलिए भगवान हमें कर्मफल की आसक्ति के पीछे भागने से रोक कर सतत् कर्मशील रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। हालांकि यह केवल निषेधात्मक है। आगे चलकर भगवान बताते हैं कि कार्य करते समय मन का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए - आसक्ति रहित होकर समभाव रखते हुए कार्य करें।

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