यज्ञः कर्म समुद्भवः .... तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्

यज्ञः कर्म समुद्भवः .... तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्


यज्ञ कर्म का उत्पादन है। यज्ञ का अर्थ है अपने आसपास के लोगों और स्वयं के कल्याणार्थ किया गया कार्य। इस भाव से किया गया प्रत्येक कर्म सर्वव्याप्त ब्रह्म यज्ञ में सदैव प्रतिष्ठित होता है। यानि समर्पित भाव से जब भी कोई कर्म हम करते हैं तो वास्तव में हम उस अनन्त ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति कर रहे होते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे - ”भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - त्याग, समर्पण और सेवा, हम इसकी इन धाराओं में यदि तीव्रता उत्पन्न करेंगे तो शेष सब ठीक हो जाएगा।“ त्याग किसका ? इस आत्मकेन्द्रित अहम् या स्व का, आत्मकेन्द्रित स्व का रूपान्तरण वृहत्तर स्व में व्यक्त होना चाहिए। समर्पण यानि स्व के अहम् का विलीनीकरण किसी श्रेष्ठ के लिए बिना किसी अपेक्षा के साथ। इन भावों से किया गया प्रत्येक कर्म सेवा बन जाता है, हम किसी न किसी का त्याग किये बिना सेवा नहीं कर सकते हैं। यज्ञ की इस धारणा के पीछे यही त्याग, समर्पण और सेवा भाव है।
श्री कृष्ण हमें यही बता रहे हैं कि सुदूर प्रतीत होने वाला ब्रह्म हमारे एकदम निकट है, जब हम अपने प्रत्येक कर्म को यज्ञ में परिवर्तित कर देते हैं। विभिन्न प्राणियों, वनस्पतियों एवं मनुष्य की सुरक्षा-हम ही इन सबके प्रति उत्तरदायी हैं क्योंकि हमारे अंदर इन सबको नष्ट करने की अथवा सबको सुरक्षा देकर पुष्ट करने की बौद्धिक शक्ति है। यदि हम इस उत्तरदायित्व का निर्वाह अपने कार्यों को यज्ञ रूप में परिणीत करके नहीं करेंगे तो हम स्वयं के साथ-साथ सबको नष्ट कर देंगे। एक वृहत ‘स्व’ के साथ सभी में एकत्व का अनुभव करते हुए-प्रकृति के साथ एकत्व, सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकत्व, सभी मनुष्यों के साथ एकत्व और इस एकत्व को सेवा के द्वारा व्यक्त कर जो शेष बचे उसमें ही आनन्द उठाते हुए जीवन निर्वाह करना चाहिए। यह चक्र अन्तरसम्बद्धता का ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ में ही स्थापित किया हुआ है। महात्मा गांधी जी ने कहा था - ”इस संसार में मानवीय आवश्यक्ताओं के लिए पर्याप्त है, लेकिन मानवीय ईच्छाओं के लिए नहीं।“ इसलिये जब कोई समाज केवल इन्द्रिय सुखों के प्रति ही समर्पित होता है तो वह समाज पतोन्मुख हो जाता है।

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