नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः

नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः


जो भी कार्य आपको कर्तव्य रूप से दिया जाता है, उसे सावधानी से करो, अच्छी तरह करो क्योंकि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है। मान लीजिये हम एक कार्यालय में काम करते हैं, हमारे ऊपर कुछ उत्तरदायित्व हैं तो उन्हें श्रेष्ठता के साथ समय पर भली-भांति पूरा करें-किसी को भी निरीक्षण के लिए आने की आवश्यकता न हो। हमें आत्मसम्मान विकसित करने की आवश्यकता है जिससे हमें दिया गया कार्य अपनी पूरी क्षमता से कर सकें। गीता में कर्म करने पर बल दिया गया, यह कर्म हम योग बुद्धि से करें, यही अपेक्षा है। बिना कार्य किए कुछ भी प्राप्त करने का विचार एक विचित्र दृष्टिकोण है। संस्कृत में एक श्लोक है -
उद्योगिनं पुरूषसिंहमुपैति लक्ष्मी,
दैवेन देयमिति कापुरूष वदन्ति।
दैवं निहत्य कुरू पौरूषं-आत्मशक्या,
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोउत्र दोषः।।
लक्ष्मी अथवा सौभाग्य मनुष्यों में उस सिंह के पास आती है जो उद्यमशील है, जो केवल अपने भाग्य के भरोसे रहता है वह कापुरूष है। अतः भाग्य के सभी विचारों को त्यागते हुए अपनी स्वयं की आत्मशक्ति से कर्मशील बनो। आपके स्वयं के सारे प्रयासों के बावजूद यदि आप जो चाहते थे, वह नहीं मिला तो इसमें बुरा क्या है ?
गीता की यह सारभूत शिक्षा है कि साधारणतः जो भी कार्य हम करते हैं, वह बंधन का कारण बनता है, लेकिन यदि हम अनासक्त भाव से करते हुए इसे आध्यात्मिक आयाम देते हैं, तो यह हमारी मुक्ति का साधन बन जाता है। कहा जाता है कि कोई भी कार्य करो पूजा के भाव से करो - पूर्ण समर्पण व दृष्टा के भाव के साथ, यही हमारी मुक्ति का भी मार्ग है और कार्य स्थल में अथवा उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न तनावों से भी मुक्ति का। आगे चलकर भगवान अर्जुन को यज्ञ भाव से कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। यज्ञ भावना यानि आसक्ति एवं अपेक्षा से मुक्त होकर, यज्ञ के बाद यानि इस भाव से किए गए कर्म के बाद जो मिलता है, वह प्रसाद हो जाता है। अर्थात् पहले दीजिये, फिर जो बचता है वह लीजिये। बंधन तब आता है जब हम कर्म अपने लिए केवल करते हैं, जब हम औरों के लिए कर्म करते हैं तथा जो बाद में बचा उसका उपयोग अपने लिए करते हैं तो यही आध्यात्मिक साधना है। लेने से पूर्व देना, तभी हमें श्रेष्ठ प्राप्त होगी। जो प्रसाद नहीं है, उसमें  मानव तंत्र को विकसित करने का सामर्थ्य भी नहीं है। यही त्याग की शिक्षा हमें ईशोपनिष्द के पहले ही श्लोक में दी गई है - ”तेन त्यक्तेन भुन्जीथा“ - त्यागपूर्वक भोग करो।

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