मनुष्य के पतन की प्रक्रिया - ध्यायतो विषयान्पुंसः............बुद्धिनाषात्प्रणष्यति

ध्यायतो विषयान्पुंसः सडघõास्तेषूपजायतें।
सघõात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाषात्प्रणष्यति।।


मनुष्य का कैसे स्खलन होता है, इसी पूरी प्रक्रिया को भगवान इन दो श्लोकों में बता रहे हैं - इन्द्रिय विषयों के बार-बार चिन्तन से उनके प्रति मन में मोह-आसक्ति हो जाती है, आसक्ति होने पर उन्हें प्राप्त करने की ईच्छा जागृत होती है, ईच्छा जागरण से हम उसे प्राप्त करने का प्रयास शुरू करते हैं, प्रयास में बार-बार असफल रहने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से बुद्धि भ्रम उत्पन्न होता है, बुद्धि की भ्रमावस्था से स्मृति भंग होती है जिससे विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है और अंततः विवेक नष्ट होने पर व्यक्ति नष्ट हो जाता है यानि उसका पतन हो जाता है।
व्यक्ति का पतन कैसे होता है इसका बड़ा अच्छा प्रसंग रामचरितमानस में नारद विवाह प्रसंग से भी समझा जा सकता है। एक बार नारद जी जब तपस्यारत थे तो कामदेव ने उनकी तपस्या को भंग करने का प्रयास किया जिसमें वो असफल रहे। तब कामदेव ने नारद जी से क्षमा मांगी तथा नारद ने भी उन्हें क्षमा कर दिया। इस घटना का चिंतन बार-बार करने पर नारद जी के मन में विचार आया कि कामदेव को परास्त तो शिवजी ने भी किया था परन्तु तब शिवजी ने कामदेव की धृष्टता पर उसे क्रोध में आ भस्म कर दिया था, पर मैंने तो बिना कोई क्रोध किए कामदेव को क्षमा कर दिया। मेरी यह उपलब्धि तो शिवजी से भी बड़ी है। ऐसा अहंकार नारद जी के मन में आया और वे इसका बखान करने शिवजी के पास पहुंच गए। शिवजी ने सुना और उन्हें कहा कि मुझे तो बता दिया पर भगवान विष्णु को मत बताना। नारद जी को लगा कि मेरी इस उपलब्धि से शिवजी चिंतित हो गए और इसका प्रचार करने से रोक रहे हैं। अतः वे सीधे नारायण भगवान के पास पहुँच अपना बखान किया। भगवान समझ गए कि नारद जी को अहं हो गया है, अतः उन्होंने अपनी माया रची। नारद जी जब वहाँ से चले तो रास्ते में भगवान द्वारा रची माया के एक नगर में पहुँचे जहाँ का राजा शीलनिधि अपनी पुत्री विश्वमोहिनी का स्वयंवर रच रहा था। राजा ने नारद जी का स्वागत किया और पुत्री को बुलाकर उसके भविष्य के बारे में बताने को कहा। उस अद्वितीय सुंदरी विश्वमोहिनी को देखकर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और अपने आप को भी भूल उसे एकटक देखने लगे। - ”देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी।।“ - बाद में राजा को अपनी ओर से बनाकर कुछ कह दिया और मन ही मन विश्वमोहिनी पर मोहित हो यही विचार करने लगे कि किस प्रकार यह कन्या मुझे ही वरे, ऐसा मैं क्या करूँ - ”करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।“
तब नारद जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जप तप से तो कुछ हो नहीं सकता, मुझे तो इस समय ऐसा शोभायमान सुंदर रूप चाहिए कि यह राजकुमारी मेरा ही वरण करे और यह रूप मुझे केवल भगवान विष्णु ही दे सकते हैं। यह विचार कर नारद जी भगवान के पास पहुँच अनुनय करने लगे और मेरा हित हो ऐसा कार्य करने का कहा - ”जेहि बिधि नाथ होई हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा।।“ भगवान ने मुस्करा कर कहा जिसमें आपका हित होगा, वह मैं करूँगा। नारद जी प्रसन्न मन से चलकर स्वयंवर में पहुँचे कि मुझे तो अब रूप, सौन्दर्य मिल गया अब तो मेरा वरण पक्का। उधर भगवान ने नारद जी को बंदर की शक्ल दे दी। स्वयंवर में नारद जी अपने रूप का अभिमान ले सबसे आगे बैठे पर राजकुमारी ने मोहग्रस्त नारद के बंदर की शक्त देख क्रोध में आ गई और उनकी ओर ताके बिना दूसरी ओर चल दी। नारद जी को लगा कि शायद उसने देखा नहीं तो वो फिर उसके सामने गए तो उसने अनदेखा कर दिया और राजा का शरीर धर कर  पहुँचे नारायण का वरण कर लिया। मोह के कारण और अपने प्रयास में असफलता से मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई और वे बहुत विकल हो गए। इसके पश्चात् जब उन्होंने दर्पण में अपना चेहरा देखा तो वे क्रोधित हो गए।
तुलसीदास जी वर्णन करते हैं -
फरकत अधर कोप मन  माहीं।
होंठ फड़कने लगे, मन में क्रोध पनपने लगा।
सपदि चले कमलापति माहीं।।
तुरन्त ही वे भगवान के पास चल दिए।
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराईं।। - जाकर भगवान को ही श्राप देने का विचार करने लगे क्योंकि जग में उन्होंने मेरा उपहास कराया। उस भगवान को श्राप देने का विचार जिनकी वो स्वयं रात दिन आराधना करते थे क्योंकि क्रोध के कारण मति भ्रम हो गयी और उसके परिणाम स्वरूप संभ्रम हुआ जिसके कारण उनका विवेक नष्ट हो गया। वो भूल गए मैं कौन हूँ, क्या करता हूँ, मैं किसको श्राप देने का सोच रहा हूँ। और ऐसी स्थिति में भगवान स्वयं उनके पास आते हैं, साथ में राजकुमारी थी और भगवान के गले में राजकुमारी द्वारा डाला गया हार - यह देख नारद जी और क्रोधित होकर अपने नष्ट हुए विवेक की स्थिति में अपने आराध्य को ही बुरा भला कहने लगे।
”पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।“
तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत हैं।
”मथत सिंधु रूद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्ररि बिष पान करायहु।।“
समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित कर उन्हें विषपान कराया।
”असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारू।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट व्यावहरू।।“
असुरों को शराब और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और कौस्तुभमणि ले ली, तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो, सदा कपट का व्यवहार करते हो।
”परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि मरहु तुम्ह सोई।।“
तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई नहीं अतः जो मन में आए वही करते हो।
यही स्थिति सम्मोहित होने पर हम सबकी होती है - अपना परिवेश, अपना परिचय, कीर्ति, यश, परम्परा सब भूल जाते हैं और नीचे ही गिरते जाते हैं यानि जो हमें नहीं करना चाहिए ऐसे कृत्य करते चले जाते हैं। हमें मन के इस स्वभाव को भली भांति जानना चाहिए तभी हम इसके विरूद्ध लड़ सकते हैं। ये दो श्लोक हमें बताते हैं कि कैसे अच्छे व्यक्ति भी कई बार बुरे कर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। सब कुछ है, सम्पन्नता है फिर भी होटलों, दुकानों से चोरी, ट्रेन से तौलिया, चादर की चोरी हम कर ही लेते हैं। इन बुरी अनिष्टकारी संभावनाओं को जान लेना अच्छा है जिससे कि हम पर्याप्त सावधानी रख सकें। एक रथी को घोड़ों के द्वारा नियंत्रित नहीं होना चहिए, घोड़े को नियंत्रित होना चाहिए रथी द्वारा - यही गीता का संदेश है।

Comments

  1. सत्य वचन भाई साहब ! जो मानव अपने मन को वश मे कर लेता हैं उसका कभी पतन नही होता हैं !

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