अभ्युदय और निःश्रेयस
अभ्युदय और निःश्रेयस
पूज्य आदिगुरू शंकराचार्य जी कहते हैं-”प्राणिनाम् साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस“ हेतु- ‘प्रवृत्ति व निवृत्ति’ एक ऐसा जीवन दर्शन जो कर्म तथा ध्यान के द्वारा सामाजिक हित तथा आध्यात्मिक उन्नति का सामन्जस्य कर सके। अभ्युदय शब्द में ध्यान देने की बात है कि अभि के बाद उदय है। ‘अभि’ का अर्थ है-एक साथ, अकेले नहीं, इसका तात्पर्य है कि सम्मिलित उद्यम-सामूहिकता के बिना कोई भी सामाजिक-आर्थिक विकास संभव नहीं है। पिछली कुछ शताब्दियों से भारतवर्ष के समाज ने इस सामूहिक भाव को ठीक से आत्मसात नहीं किया-आज हमें इस पाठ को सीखने की आवश्यकता है। आज हमें अपने जीवन तथा कार्य में तीन मूल्य अपनाने ही होंगे-कठोर परिश्रम, कार्यकुशलता, सामूहिकता। हम लोग एक दूर स्थित ईश्वर या किसी मंदिर की देवमूर्ति के साथ अपने को जोड़ने में अत्यधिक रूचि लेते रहे हैं और अपने पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति के साथ नहीं-यह बदलाव ही अभ्युदय लाएगा। इसके बाद ही निःश्रेयस आता है। आज अनेकों जगह सब प्रकार की समृद्धि प्राप्त करने के पश्चात् भी मन की शांति नहीं दिख रही-कारण क्या है ? जीवन तनावों से परिपूर्ण क्यों है ? इसलिए कि हमने एक चीज खो दी, अपने अन्तर में निहित दिव्यता के रूप अपनी सच्ची आत्मा को नहीं जाना। हमारे आकर्षण का केन्द्र सदैव बाहर रहा। इस विनोश से बचा जा सकता है। बशर्ते कि हम निवृत्ति या ध्यान रूपी उस दूसरे मूल्य को जोड़ें। अपनी आंतरिक प्रकृत्ति के भीतर प्रवेश करने पर हम अपने आनुवंशिक तंत्र द्वारा नियंत्रित क्षुद्र अहंकार के परे चले जाते हैं। अतः शंकराचार्य जी ने इसे केवल हिन्दुओं के लिए नहीं कहा, बल्कि उन्होंने कहा-प्राणिनाम्-समस्त प्राणियों के लिए-यही इसकी सार्वभौमिकता है। अभ्युदय और निःश्रेयस-दोनों एक साथ मिलकर इस संसार को संतुलित बनाए रखने के लिए हैं। एक पर जोर देकर दूसरे की अवहेलना से यह एक नौका के समान एक ओर झुक जाएगी। पिछले कुछ शताब्दियों से हम निःश्रेयस की ओर अधिक झुके रहे और वह भी ठीक ढंग से नहीं तथा अभ्युदय की अवहेलना करके निष्क्रियता के कष्ट भोगते रहे। वहीं पाश्चात्य जगत ने अभ्युदय की तरफ अपना झुकाव रखा, निःश्रेयस की अवहेलना की। आज समय की मांग है कि पूर्व और पश्चिम का समन्वय यानि अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों पर समाज जोर, तभी मानव जाति सुखी, सम्पन्न व सच्चे अर्थों में विकासोन्मुख हो पाएगी।
पूज्य आदिगुरू शंकराचार्य जी कहते हैं-”प्राणिनाम् साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस“ हेतु- ‘प्रवृत्ति व निवृत्ति’ एक ऐसा जीवन दर्शन जो कर्म तथा ध्यान के द्वारा सामाजिक हित तथा आध्यात्मिक उन्नति का सामन्जस्य कर सके। अभ्युदय शब्द में ध्यान देने की बात है कि अभि के बाद उदय है। ‘अभि’ का अर्थ है-एक साथ, अकेले नहीं, इसका तात्पर्य है कि सम्मिलित उद्यम-सामूहिकता के बिना कोई भी सामाजिक-आर्थिक विकास संभव नहीं है। पिछली कुछ शताब्दियों से भारतवर्ष के समाज ने इस सामूहिक भाव को ठीक से आत्मसात नहीं किया-आज हमें इस पाठ को सीखने की आवश्यकता है। आज हमें अपने जीवन तथा कार्य में तीन मूल्य अपनाने ही होंगे-कठोर परिश्रम, कार्यकुशलता, सामूहिकता। हम लोग एक दूर स्थित ईश्वर या किसी मंदिर की देवमूर्ति के साथ अपने को जोड़ने में अत्यधिक रूचि लेते रहे हैं और अपने पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति के साथ नहीं-यह बदलाव ही अभ्युदय लाएगा। इसके बाद ही निःश्रेयस आता है। आज अनेकों जगह सब प्रकार की समृद्धि प्राप्त करने के पश्चात् भी मन की शांति नहीं दिख रही-कारण क्या है ? जीवन तनावों से परिपूर्ण क्यों है ? इसलिए कि हमने एक चीज खो दी, अपने अन्तर में निहित दिव्यता के रूप अपनी सच्ची आत्मा को नहीं जाना। हमारे आकर्षण का केन्द्र सदैव बाहर रहा। इस विनोश से बचा जा सकता है। बशर्ते कि हम निवृत्ति या ध्यान रूपी उस दूसरे मूल्य को जोड़ें। अपनी आंतरिक प्रकृत्ति के भीतर प्रवेश करने पर हम अपने आनुवंशिक तंत्र द्वारा नियंत्रित क्षुद्र अहंकार के परे चले जाते हैं। अतः शंकराचार्य जी ने इसे केवल हिन्दुओं के लिए नहीं कहा, बल्कि उन्होंने कहा-प्राणिनाम्-समस्त प्राणियों के लिए-यही इसकी सार्वभौमिकता है। अभ्युदय और निःश्रेयस-दोनों एक साथ मिलकर इस संसार को संतुलित बनाए रखने के लिए हैं। एक पर जोर देकर दूसरे की अवहेलना से यह एक नौका के समान एक ओर झुक जाएगी। पिछले कुछ शताब्दियों से हम निःश्रेयस की ओर अधिक झुके रहे और वह भी ठीक ढंग से नहीं तथा अभ्युदय की अवहेलना करके निष्क्रियता के कष्ट भोगते रहे। वहीं पाश्चात्य जगत ने अभ्युदय की तरफ अपना झुकाव रखा, निःश्रेयस की अवहेलना की। आज समय की मांग है कि पूर्व और पश्चिम का समन्वय यानि अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों पर समाज जोर, तभी मानव जाति सुखी, सम्पन्न व सच्चे अर्थों में विकासोन्मुख हो पाएगी।
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