सभ्यताओं का अधःपतन एवं बचाव के उपाय
सभ्यताओं का अधःपतन एवं बचाव के उपाय
आद्य गुरू शंकराचार्य अपने मनोवैज्ञानिक अध्ययन में सभ्यताओं के अधःपतन की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं - ”अनुष्ठातृणां कामोद्भवात् हीयमान-विवेक-विज्ञान-हेतुकेन- अभिभूयमाने धर्मे, प्रवर्धमाने च अधर्मे।“ - ‘जब कामनाऐं एक सीमा के ऊपर चली जाती हैं, तब समाज में अनेक बुराईयाँ प्रकट होने लगती हैं तथा विवेक एवं विज्ञान का हृास होने लगता है, धर्म अभिभूत हो जाता है तथा अधर्म बढ़ जाता है।’ पश्चिम के अनेकों विचारकों जैसे स्पेंगलर, अर्नाल्ड टॉयन्बी द्वारा लिखे ग्रन्थों में एक धारणा स्पष्ट दिखती है कि, संस्कृति मानव समाज का एक सक्रिय पहलू है और जब यह दुर्बल होगी, तब सभ्यता का अधःपतन होगा। जब लोग ज्यादा सुख-सुविधा चाहने लगते हैं तो इन्द्रिय तंत्र उत्तेजित हो जाता है, जरूरतें बढ़ जाती हैं एवं सभ्यता का अधःपतन प्रारम्भ हो जाता है। जब हम कठोर परिश्रम करते हैं, तब हमें दर्शन की भाषा में becoming (हो रहे) अर्थात् संस्कृति की अवस्था में कहा जाता है, जब कोई become(हो चुका) है, तब उसे सभ्यता कहते हैं और वह अधःपतन की शुरूआत है। समस्त सुख सुविधाओं के उपलब्ध होने के कारण वहाँ परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं रहती और इससे मनुष्य में निहित वीरता का तत्व कुंठित हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि भाग्य तीन या चार पीढ़ियों से ज्यादा एक परिवार का साथ नहीं देता है।
प्रसिद्ध लेखक गिब्बन अपनी पुस्तक 'Decline and The Fall of Roman Empire' में लिखते हैं - ‘रोमन साम्राज्य के सभी सम्प्रदाय तथा धर्म लोगों द्वारा समान रूप से सत्य, दार्शनिकों द्वारा समान रूप से गलत और न्यायधीशों द्वारा समान रूप से उपयोगी माने जाते थे। लोग भ्रष्ट जीवन बीता रहे थे, जब आक्रान्ता आए तो नवयुवक लड़कर साम्राज्य की रक्षा करने के इच्छुक नहीं थे, उनके पास लड़ने के लिए भाड़े के योद्धा थे।’ रोमन साम्राज्य जैसी स्थिति से मिस्र, बेबीलोन, असीरिया आदि अन्य सभ्यताओं को भी गुजरना पड़ा। यूरोप में 20वीं शताब्दी में ओसवाल स्पेंगलर द्वारा लिखी पुस्तक ' The Decline of the West, में लेखक कहता है कि, ”पाश्चात्य समाज ने अपना कार्य समाप्त कर लिया है और अब यह क्षय की अवस्था में है।“ अमेरिका के कनसास सिटी में उत्तर पश्चिमी समाचार सम्पादकों के समक्ष राष्ट्रपति निक्सन ने वाशिंगटन की फेडरेल इमारतों का उल्लेख करते हुए कहा - ”कभी-कभी जब मैं उन खम्भों को देखता हूँ, तो मुझे लगता है कि मैं उन्हें यूनान के Acroplys (नगर-दुर्ग) में देख रहा हूँ। विशाल नंग धड़ंग खम्भे - मैंने उन्हें रोम के न्यायालय में भी देखा है। मैं सोचता हूँ कि यूनान तथा रोम का क्या हुआ और आप देखते हैं कि आखिर क्या बचा - खम्भे। वस्तुतः हुआ यह कि पूर्व की महान सभ्यताऐं धनाढ़य हो गई थीं, अतः सुधार व परिश्रम की इच्छा खो बैठी तथा वे अधःपतन की शिकार हो गई। लगता है अमेरिका भी अब उसी काल में पहुँच रहा है।“
दूसरी ओर भारत ने भी अनेकों बार अधःपतन देखे पर हर बार वो सम्पूर्ण विनाश से बच गया क्योंकि हर बार अर्द्धमृतावस्था के समय कोई न कोई महान आध्यात्मिक आचार्य का अवतरण हुआ जिसके कर्तृत्व से एक प्रचण्ड जनजागरण तथा नये विकास का उदय हुआ। आज आवश्यकता है पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों के समन्वय से सांस्कृतिक क्षय को रोकते हुए सभ्यता को बचाने की। स्वामी विवेकानन्द कहते थे केवल सांस्कृतिक सम्मिलन ही यथेष्ट नहीं है। अपनी विरासत में जो कुछ दुर्बल बनाने वाला था उसे छोड़ने के बाद उसके सर्वोत्तम तत्वों को लेकर पश्चिम से जो कुछ आया है, उसकी अच्छी चीजों के साथ सम्मिलन करना चाहिए। अमेरिका से अपने एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं - ”क्या समता, स्वतंत्रता, कार्यकौशल और पौरूष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरू बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ-साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा अध्यात्म साधनाओं से एक कट्टर हिन्दू हो सकते हो ?“
मनु स्मृति भी कहती है -
श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादापि।।
”अपने से छोटे से भी परम श्रद्धा के साथ उत्तम विद्या ग्रहण करनी चाहिए, अन्त्यज से भी परम धर्म अर्थात् मुक्ति का मार्ग सीखना चाहिए और बुरे कुल से भी योग्य कन्या रत्न को ग्रहण करना चाहिए।“
यही एकमात्र उपाय है। एर्नाल्ड टायन्बी लिखते हैं कि भारत को यह करना ही होगा, न सिर्फ अपने लिए बल्कि पूरे विश्व की शांति व समृद्धि के लिए।
आद्य गुरू शंकराचार्य अपने मनोवैज्ञानिक अध्ययन में सभ्यताओं के अधःपतन की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं - ”अनुष्ठातृणां कामोद्भवात् हीयमान-विवेक-विज्ञान-हेतुकेन- अभिभूयमाने धर्मे, प्रवर्धमाने च अधर्मे।“ - ‘जब कामनाऐं एक सीमा के ऊपर चली जाती हैं, तब समाज में अनेक बुराईयाँ प्रकट होने लगती हैं तथा विवेक एवं विज्ञान का हृास होने लगता है, धर्म अभिभूत हो जाता है तथा अधर्म बढ़ जाता है।’ पश्चिम के अनेकों विचारकों जैसे स्पेंगलर, अर्नाल्ड टॉयन्बी द्वारा लिखे ग्रन्थों में एक धारणा स्पष्ट दिखती है कि, संस्कृति मानव समाज का एक सक्रिय पहलू है और जब यह दुर्बल होगी, तब सभ्यता का अधःपतन होगा। जब लोग ज्यादा सुख-सुविधा चाहने लगते हैं तो इन्द्रिय तंत्र उत्तेजित हो जाता है, जरूरतें बढ़ जाती हैं एवं सभ्यता का अधःपतन प्रारम्भ हो जाता है। जब हम कठोर परिश्रम करते हैं, तब हमें दर्शन की भाषा में becoming (हो रहे) अर्थात् संस्कृति की अवस्था में कहा जाता है, जब कोई become(हो चुका) है, तब उसे सभ्यता कहते हैं और वह अधःपतन की शुरूआत है। समस्त सुख सुविधाओं के उपलब्ध होने के कारण वहाँ परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं रहती और इससे मनुष्य में निहित वीरता का तत्व कुंठित हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि भाग्य तीन या चार पीढ़ियों से ज्यादा एक परिवार का साथ नहीं देता है।
प्रसिद्ध लेखक गिब्बन अपनी पुस्तक 'Decline and The Fall of Roman Empire' में लिखते हैं - ‘रोमन साम्राज्य के सभी सम्प्रदाय तथा धर्म लोगों द्वारा समान रूप से सत्य, दार्शनिकों द्वारा समान रूप से गलत और न्यायधीशों द्वारा समान रूप से उपयोगी माने जाते थे। लोग भ्रष्ट जीवन बीता रहे थे, जब आक्रान्ता आए तो नवयुवक लड़कर साम्राज्य की रक्षा करने के इच्छुक नहीं थे, उनके पास लड़ने के लिए भाड़े के योद्धा थे।’ रोमन साम्राज्य जैसी स्थिति से मिस्र, बेबीलोन, असीरिया आदि अन्य सभ्यताओं को भी गुजरना पड़ा। यूरोप में 20वीं शताब्दी में ओसवाल स्पेंगलर द्वारा लिखी पुस्तक ' The Decline of the West, में लेखक कहता है कि, ”पाश्चात्य समाज ने अपना कार्य समाप्त कर लिया है और अब यह क्षय की अवस्था में है।“ अमेरिका के कनसास सिटी में उत्तर पश्चिमी समाचार सम्पादकों के समक्ष राष्ट्रपति निक्सन ने वाशिंगटन की फेडरेल इमारतों का उल्लेख करते हुए कहा - ”कभी-कभी जब मैं उन खम्भों को देखता हूँ, तो मुझे लगता है कि मैं उन्हें यूनान के Acroplys (नगर-दुर्ग) में देख रहा हूँ। विशाल नंग धड़ंग खम्भे - मैंने उन्हें रोम के न्यायालय में भी देखा है। मैं सोचता हूँ कि यूनान तथा रोम का क्या हुआ और आप देखते हैं कि आखिर क्या बचा - खम्भे। वस्तुतः हुआ यह कि पूर्व की महान सभ्यताऐं धनाढ़य हो गई थीं, अतः सुधार व परिश्रम की इच्छा खो बैठी तथा वे अधःपतन की शिकार हो गई। लगता है अमेरिका भी अब उसी काल में पहुँच रहा है।“
दूसरी ओर भारत ने भी अनेकों बार अधःपतन देखे पर हर बार वो सम्पूर्ण विनाश से बच गया क्योंकि हर बार अर्द्धमृतावस्था के समय कोई न कोई महान आध्यात्मिक आचार्य का अवतरण हुआ जिसके कर्तृत्व से एक प्रचण्ड जनजागरण तथा नये विकास का उदय हुआ। आज आवश्यकता है पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों के समन्वय से सांस्कृतिक क्षय को रोकते हुए सभ्यता को बचाने की। स्वामी विवेकानन्द कहते थे केवल सांस्कृतिक सम्मिलन ही यथेष्ट नहीं है। अपनी विरासत में जो कुछ दुर्बल बनाने वाला था उसे छोड़ने के बाद उसके सर्वोत्तम तत्वों को लेकर पश्चिम से जो कुछ आया है, उसकी अच्छी चीजों के साथ सम्मिलन करना चाहिए। अमेरिका से अपने एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं - ”क्या समता, स्वतंत्रता, कार्यकौशल और पौरूष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरू बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ-साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा अध्यात्म साधनाओं से एक कट्टर हिन्दू हो सकते हो ?“
मनु स्मृति भी कहती है -
श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादापि।।
”अपने से छोटे से भी परम श्रद्धा के साथ उत्तम विद्या ग्रहण करनी चाहिए, अन्त्यज से भी परम धर्म अर्थात् मुक्ति का मार्ग सीखना चाहिए और बुरे कुल से भी योग्य कन्या रत्न को ग्रहण करना चाहिए।“
यही एकमात्र उपाय है। एर्नाल्ड टायन्बी लिखते हैं कि भारत को यह करना ही होगा, न सिर्फ अपने लिए बल्कि पूरे विश्व की शांति व समृद्धि के लिए।
Comments
Post a Comment