श्रुति तथा स्मृति की भारतीय अवधारणा

श्रुति तथा स्मृति की भारतीय अवधारणा

परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं और हमें उस प्राचीन सनातन सत्य के ही एक नए प्रतिपादन की आवश्यकता होती है। सत्य वही रहता है, केवल उसका आवरण बदल जाता है। दो शब्द हैं-श्रुति और स्मृति। श्रुति का अर्थ है - सुना हुआ सनातन ज्ञान यानि वेद, और विशेषकर उसका उपनिषद् अंश, जो सत्य का विश्लेषण करता है, जबकि स्मृतियाँ समकालीन विधि निषेधों पर चर्चा करती हैं। स्मृति श्रुति की अनुगामी है। भारतीय परम्परा इस बात पर बल देती है कि ”श्रुति स्मृति विरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी-जब श्रुति एवं स्मृति के बीच विरोध होता है तो श्रुति को ही महत्ती प्रमाण माना जाता है।“ सनातन धर्म का अभिप्राय श्रुति से है-ये सार्वभौमिक, सार्वकालिक सत्य हैं। भगवान बुद्ध अपनी शिक्षाओं में कहते हैं-एष धर्मः सनातनः - यह धर्म सनातन है। इसी के साथ आता है युगधर्म-एक ऐसा धर्म, जो इतिहास के एक विशेष युग-काल के लिए, एक विशेष राष्ट्र के लिए है और उसे ही स्मृति कहते हैं। स्मृतियाँ आती हैं और जाती हैं, भारत में न जाने कितने स्मृतियाँ समय-समय पर प्रचलित हुई और त्याग दी गयी परन्तु श्रुति शाश्वत है। पुरानी स्मृतियों को बदलने और समकालीन चिंतन के अनुसार नई स्मृति के विकास करने का हममें साहस है। सामाजिक परिवर्तन एवं युगानुकूल विचार कर परिवर्तन करना - यह भारत की विशिष्टता रही है। इस कार्य के लिए महान आचार्यों यानि तज्ञ लोगों की आवश्यकता होती है क्योंकि उन्हीं के पास इस दुरूह कार्य को करने केलिए आवश्यक आध्यात्मिक ज्ञान एवं कुशलता व अधिकार होता है। यह अधिकार एक बिशप या पोप, या पुरोहित या कोई भी पारम्पिरिक धार्मिक पदस्थिति प्राप्त करने से नहीं आता है। यह आध्यात्मिक अनुभूति से आता है, यह एक आध्यात्मिक आचार्य के हृदय में निहित अपार करूणा से आता है। भारत के पास यह सामर्थ्य रहा है, इसलिए हम मृत्युंजयी हैं।
स्वामी विवेकानन्द के सहपाठी एवं मैसूर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे प्राध्यापक ब्रजेन्द्रनाथ शील इसीलिए कहते हैं - ”भारत की आयु निरन्तर बढ़ रही है, परन्तु यह कभी वृद्ध नहीं होता है।“ यही वह भारत है जो आवश्यकता पड़ने पर एक नये परिवेश में रूपायित हो जाता है - आवश्यक परिवर्तनों को आत्मसात करता हुआ वही प्राचीन भारत। एक स्मृति को बदलने का साहस और वह भी शान्तिपूर्वक, यह विशुद्ध रूप से एक हिन्दू विरासत है। अन्य किसी भी मत/पंथ ने यह साहस नहीं दिखाया। उनमें स्मृतियाँ ही सब कुछ हैं - उन्हें छुआ भी नहीं जा सकता और यदि किसी सुधारक ने उन्हें बदलने का प्रयास किया तो उसे प्रताड़ित कर मार डाला जाता है।

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