श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः


वह व्यक्ति जिसमें श्रद्धा और भक्ति है तथा जिसने इन्द्रियों पर अपना नियंत्रण कर लिया है, वह ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी है। यदि विद्यार्थी में श्रद्धा है - गुरू के प्रति श्रद्धा, तो वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है। श्रद्धा का अर्थ है विश्वास - गुरू के प्रति विश्वास, साथ ही स्वयं अपने ऊपर भी विश्वास - यह विश्वास कर्तव्य में भी दिखना चाहिए यानि भक्ति के भाव से परिपूर्ण विश्वास। अपने स्वयं का अहं, परिवार का अहं, आर्थिक स्थिति, पद का अहं आदि से युक्त विद्यार्थी इस श्रद्धा को अपने अंदर नष्ट कर देता है। ऐसी स्थिति में जब गुरू के प्रति विश्वास में कमी होती है तो हम उनसे कोई प्रेरणा, ज्ञान प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं। आदि गुरू शंकराचार्य जी कहते हैं - ‘आस्तिकीय बुद्धि ही श्रद्धा है’ - सकारात्मक मन का ढाँचा ही श्रद्धा कहलाता है। श्रद्धा सनकीपन का विलोम है, वह सनकीपन जो नकारात्मक मनस्थिति के कारण पैदा होता है। तत्परः शब्द का अर्थ है समर्पित, ज्ञान के प्रति समर्पित दृष्टि। तत् शब्द का अर्थ सर्वोच्च ज्ञान या सत्य है। हम कई बार उपासना के दौरान बोलते हैं - ‘ऊँ तत् सत्-ऊँ वह सत्य।’ संयत इन्द्रियः का मतलब है ऐन्द्रिक ऊर्जाओं का तीव्र अनुशासन। हम ज्ञान को तब तक प्राप्त नहीं कर सकते जब तक हम मन को चलायमान करने वाली इन्द्रियों को नियंत्रित करना नहीं सीख जाते।
एक शोधकर्ता या वैज्ञानिक प्रकृति के किसी पहलू पर कोई प्रयोग कर रहा है क्योंकि उसका उस सत्य अथवा तथ्य के प्रति श्रद्धा है , विश्नवास है | यदि उसकी उस सत्हींय के प्रति कोई श्रध्दा नहीं  होगी, तो क्या वह अनुसंधान कर पाएगा ? श्रद्धा के बिना न कोई विज्ञान है, और न ही आध्यात्मिक विकास संभव है।
श्रीकृष्ण कहते हैं - तत्परः यानि हम सत्य की खोज करें। अनेक बातें समाज जीवन में, प्रकृति में दिखाई देती हैं, सतही तौर पर वे सत्य प्रतीत होती है परन्तु सत्य नहीं होती है। अतः हमें गहराई में जाने की आवश्यकता है - यही हमारा स्वभाव होना चाहिए - ध्येय चाहिए - सत्य का अन्वेषण, अपनी ऐन्द्रिक ऊर्जाओं को नियंत्रित करते हुए श्रद्धा भाव के साथ सत्य का अन्वेषण करने का स्वभाव - हमारे विद्यार्थियों का बनना चाहिए। भगवान आगे चलकर कहते हैं जिस व्यक्ति में श्रद्धा नहीं है, विश्वास नहीं, संशय है, वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है - असफल रहता है। संशयात्मा - यानि संशय युक्त व्यक्ति। संश्यात्मा विनश्यति - संशय युक्त व्यक्ति नष्ट हो जाता है। इसलिए विद्यालयों में विद्यार्थियों को बहुत अधिक संशय में रहने की वर्तमान प्रकृति से मुक्त रह सकने का अभ्यास कराना आज की तत्कालिक आवश्यकता है।

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