तयोस्तु कर्मसन्यासात् कर्मयागो विषिष्यते
तयोस्तु कर्मसन्यासात् कर्मयागो विषिष्यते
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कर्म का त्याग (कर्मसंन्यास) एवं कर्मयोग अर्थात् योग की भावना से, अनासक्त होकर कर्म करना, इन दोनों में से कर्मसंन्यास की तुलना में कर्मयोग श्रेष्ठतर है। कर्मयोग यानि कर्म करते हुए आध्यात्मिक चेतना का विकास श्रेष्ठतम है। हम वन में जाकर एकांतिक जीवन जीते हुए ध्यान, साधना कर सकते हैं, परन्तु समाज में रहते हुए, हजारों लोगों के कष्टों को अनुभव करते हुए, उनकी सहायता करते हुए- सेवा करते हुए, परिस्थितियों को सुधारते हैं, तब भी हम आध्यात्मिक साधना के पथ पर ही बढ़ रहे होते हैं और यह निश्चित रूप से वन में जाकर की जा रही एकांतिक साधना से श्रेष्ठ है। भगवान बुद्ध के जीवन का एक प्रसंग है कि एक दिन जब वे मठ में घूम रहे थे तो एक भिक्षु को एक कक्ष में हैजे से कष्ट पाते देखा। उन्होंने उससे पूछा कि क्या कोई अन्य भिक्षु तुम्हारी देखभाल व सेवा के लिए आया ? उत्तर मिला - जी नहीं, वे सब ध्यान कर रहे थे। भगवान ने उसकी सेवा सुश्रुषा की। तब अन्य भिक्षुओं के आने पर भगवान ने उनसे उस भिक्षु की सेवा न करने का कारण पूछा। उन्होंने कहा, आपने हमें ध्यान साधना को कहा था, वो हम कर रहे थे। तब भगवान ने उन्हें समझाया और कहा, ”यह कैसी मूर्खता है, तुम अपना ध्यान उठा कर फेंक दो। जब भी तुम किसी को कष्ट में देखो, तब पहली प्राथमिकता उसकी सेवा करने की है।“
कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए नहीं रहता, प्रत्येक अपने स्वभाव विशेष के अनुरूप कोई न कोई कर्म करता ही है। कोई अज्ञानी व्यक्ति केवल अपने जीवन और व्यवसाय को विस्तार देने हेतु कर्म करता है। लेकिन एक बुद्धिमान व्यक्ति, सभी के हितों के लिए अनासक्त भाव से कर्म करता है। भगवान ने गीता के तृतीय अध्याय में कहा है - चिकीर्षुलोकसंग्रहम् - जगत के कल्याण के लिए (लोक संग्रह) कर्मरत रहना। दो प्रकार के लोग हैं - मूढ़ व्यक्ति-जो केवल स्वयं के स्वार्थ पूर्ति हेतु कार्य करता है। विद्वान व्यक्ति - जो लोगों के कल्याण के लिए कार्य करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं एक तीसरा प्रकार भी है जो कोई भी सांसारिक कार्य न करता हुआ, एकान्त में रहकर अपने स्वयं की मुक्ति हेतु आध्यात्मिक विकास के प्रयास में व्यस्त रहता है, ऐसा व्यक्ति तब भी कोई चिंता नहीं करता जब हजारों लोग कष्ट से पीड़ित हों। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे - ‘धर्म खाली पेट के लिए नहीं है।’ स्वामी विवेकानन्द ने कहा - ”मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं करता जो न विधवाओं के आँसू पोंछ सकता है, और न ही भूखे को एक रोटी का टुकड़ा ही दे सकता है।“ उपनिषदों पर आधारित गीता हमें कर्म करने का ही संदेश देती है क्योंकि जिस प्रकार प्रार्थना धर्म का अंग है, वैसे ही अनासक्त भाव से, योग आधारित कर्म भी धर्म का अंग है। महानारायण उपनिषद में कहा गया है कि - ‘अन्तर्बहिश्च् तत् सर्वं व्याप्य नारायण स्थितः’ - ‘नारायण मनुष्य के अंदर व बाहर, दोनों ओर विद्यमान है।’ हमने तो प्रत्येक जीव को ही शिव माना है, शिव पूजा यानि जीव सेवा - ऐसा वर्णन अनेकों श्रेष्ठजनों ने किया है। ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठं - यह विश्व ब्रह्माण्ड या जगत ब्रह्माण्ड वही सर्वोच्च दिव्य ब्रह्म है। यह वेदान्त की एक महत्वपूर्ण शिक्षा है। लेकिन हमने एक विग्रह विशेष में केवल भगवान को सीमित कर दिया है, अन्यत्र जगत में हम उस भगवान की उपस्थिति का अनुभव नहीं करते। कर्म करते हुए इस एकत्व की अनुभूति करने का मार्ग ही भगवान गीता में हमें बता रहे हैं। केवल राजनीतिक उपायों, कानून, पुलिस आदि द्वारा समाज में उत्पन्न विकृति, हिंसा, अपराध व मानव मन की दुर्बलताओं से मुकाबला नहीं किया जा सकता, इससे मुकाबला करने हेतु गीता प्रणीत इस कर्मयोग को ही जीवन के व्यवहार में उतारने की साधना करनी पड़ेगी। यदि हम प्रजातंत्र को सफल बनाना चाहते हैं तो नीतिगत, नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के इस तत्व को व्यवहार में लाकर कर्मशील लोगों की एक श्रंखला खड़ी करने की जरूरत है। हम तो कष्टों से मुक्त हैं, परन्तु यदि हमारे चारों ओर अनेकों लोग कष्ट से पीड़ित हैं - तो क्या हम सुख शांतिपूर्वक रह पाऐंगे। क्या हमारा उनके प्रति कोई दायित्व नहीं। यदि हमारा हृदय पूर्णतः शुल्क है तो मानव जीवन और धर्म का क्या लाभ ? काल के प्रवाह में हमारे देश में दुर्भाग्य से - प्रखर बुद्धि, किन्तु शुष्क हृदय - की स्थिति काफी समय से पैर जमाए हुए हैं - इस स्थिति को बदलने की अब आवश्यकता है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - ”शंकराचार्य जी की बुद्धि को बुद्ध के असीम हृदय से संयुक्त करो।“ अतः भगवान के बताये इस कर्मयोग के जीवन को हम उतारें - यही गीता का हमारे लिए संदेश है।
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