बदहाल शिक्षा व्यवस्था

 आज एक समाचार पढ़ा | महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय अजमेर के कुलपति घूस लेते हुए गिरफ्तार हुए| वे एक विश्वविद्यालय के मुखिया थे जिसमें हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं| सुबह वे उस सेमिनार में सम्मिलित थे जिसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नई शिक्षा नीति पर विमर्श कर रहे थे और सायं काल वे घूस लेते हुए गिरफ्तार हो जाते हैं| यह आश्चर्य का विषय नहीं है, लेकिन उन लोगों के लिए चिंता का विषय अवश्य होना चाहिए जो नई शिक्षा नीति से बहुत आश लगाये बैठे हैं|

शिक्षा नीति अच्छी है या बुरी है इसका क्या अर्थ है, जब उस शिक्षा नीति को क्रियान्वित करने का दायित्व ऐसे ही लोगों के पास हो ? मूल प्रश्न तो यह है कि आज की शिक्षा का व्यक्तिशः नहीं अपितु समग्रता में उद्देश्य क्या है? श्रद्धेय अशोक सिंहल जी सदैव एक बात कहा करते थे "हमें ऐसे छात्रों और शिक्षकों की आवश्यकता है जो कैरियरिस्ट न हों अपितु मिशनरी हों, उनके जीवन का एक आदर्श हो, एक श्रेष्ठ उद्देश्य हो| यदि हमारी शिक्षा कोई आदर्श नहीं खड़ी कर पाती है तो वह निरर्थक है|"

क्या आज की शिक्षा कोई आदर्श खड़ा करती है? शिक्षा जगत में आज की शिक्षा के तीन उद्देश्य हैं डिग्री, नौकरी और वेतन| पहले तो डिग्री प्राप्त करने के लिए कोई भी हथकंडा प्रयोग किया जाता है, फर्जी शोध-प्रबंध से लेकर शोध-पत्र एवं आकादमिक रिकार्ड तक के लिए कुछ भी किया जा सकता है| यह आज से नहीं स्वतंत्रता के पूर्व से ही चला आ रहा है| डिग्री आपके हाथ में होनी चाहिए, रिकॉर्ड अच्छे होने चाहिए, यह कोई अर्थ नहीं रखता कि ज्ञान कितना है | फिर नौकरी, वास्तविकता तो यह है कि शिक्षक बनना तो एक अवांतर कार्य है मुख्य तो नौकरी प्राप्त करना है| आजकल यह नौकरी आपके केवल अच्छे रिकॉर्ड से ही नहीं मिलती इसके लिए औरों और विशेष रूप से साहब की कृपा चाहिए और कृपा कैसे प्राप्त होगी यह अजमेर वाले कुलपति साहब ने बता ही दिया है| यह सभी के लिए सत्य नहीं हो सकता, लेकिन यह बहुत बड़ा स्याह पक्ष है|

फिर कृपा मिल गयी तो कृपा प्राप्त करते-करते वे भी कृपा देनेवालों की स्थिति में पहुँचना चाहेंगे, जिससे फिर वे औरों को कृपा दे सकें| यह यात्रा ही आज का उच्च शिक्षा तंत्र है | शिक्षा तंत्र में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो न कृपा प्राप्त करनेवालों में हैं और न ही कृपा देनेवालों में हैं, वे शुद्ध ज्ञानार्जन में लगे हैं, परन्तु नियामक नहीं बन सकते, क्योंकि उन्हें कृपा देने और लेने की आदत नहीं है और न ही ज्ञानपिपासु व्यक्ति ऐसे पचड़ों में फंसना चाहते हैं और यही हमारे शिक्षा जगत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है|

इसलिए चाहे जितनी नीतियाँ बनें, लेकिन मन यदि समग्रता में दूषित है तो नीतियों को भी उसी के अनुरूप ढाल लेता है| विडम्बना यह है कि हमारा संवैधानिक राज्य भाव और कार्य से अधिक कागज देखता है| यदि कागज ठीक है तो सब कुछ ठीक है| आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि कोई भी नीति कागज से मनोभाव में कैसे आये और मनोभाव से व्यवहार में कैसे

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