आओ हे अतिथि...हमारी छाती पर मूंग दलो
आओ हे अतिथि...हमारी छाती पर मूंग दलो
यूरोप का सौन्दर्यीकरण हो रहा है। यूं तो वह पहले से बहुत सुन्दर है। अब उसे सुन्दरतर बनाया जा रहा। एकदम जन्नत। झक्कास! अग्नि की लपटें उसे पवित्र कर रहीं हैं। लाल-पीली लपटों और धुएं की मोटी-मोटी धार से आकाश भर उठा है। क्रीड़ा परिसर जल रहे। बाजार-मॉल जल रहे। गाड़ियां बसें जल रहीं।पानी में आग लगी है। पुस्तकालय जल रहा।सुना है वह फ्रांस के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक था। वहां लाखों पुस्तकें रखी हुई थीं। अब वे सब पुस्तकें स्वाहा हो चुकीं हैं। उन्हें एक झटके में पढ़ लिया गया है।पूरे विश्व को पढ़ा दिया गया है कि एक ही सत्य है।एक ही पुस्तक है। एक ही पंथ। या तो उसे मानो या फिर जलो। वैसे भी मृत्यु ही अंतिम सत्य है!
फ्रांस के लोगों को अपनी संस्कृति भाषा और धरोहरों का बड़ा गर्व रहा है। बड़े महान लेखकों, चित्रकारों, कलाकारों, मूर्तिकारों की धरती रही है फ्रांस। अब फ्रांस के लोगों को समझा दिया गया है कि सब मिथ्या है। हज़ारों वर्ष प्राचीन सभ्यता है... तो है। बड़े तप, श्रम-स्वेद, साधना और प्रज्ञा से उसे गढ़ा गया तो एक झटके में उसे भस्म भी किया जा सकता है। और यह फ्रांस के साथ ही नहीं लगभग पूरे यूरोप के साथ होने वाला है। झांकियां तो वहां पहले से दिखलाई जा रही हैं। प्रोग्रेसिव यूरोप.. मानवाधिकार का पैरोकारी यूरोप.. आधुनिक, समतामूलक सेक्यूलर यूरोप। दुनिया जब सो रही थी, तब यूरोप का रेनेसां हो चुका था-पुनर्जागरण! उसी जागरण के घोड़े पर सवार होकर यूरोप सरपट भागा था। विज्ञान, कला और साहित्य में प्रतिमान स्थापित किए। दुनिया पर चढ़ बैठा था। फिर यूरोप ने प्रजातंत्र की महत्ता स्वीकार की। सबको जीने का समान अधिकार मिले। उसी अधिकार को मानवता का आभूषण कहकर यूरोप ने आवाहन किया...
आओ शरणार्थियों आओ ! हमारी धरती पर बस जाओ। हमारे घरों को अपना घर समझो। दूधो नहाओ पूतोपूत फलो। समंदर में तैरो...किलोल करो और बीच सड़क पर अता करो नमाज़। चाहे कल-परसों करो या फिर कर लो आज! आओ मेरे प्रिय शरणार्थियो आओ! तुम बहुत कष्ट में हो! वे आ गए। धीरे-धीरे वे पसरने लगे। यूरोप के छोटे-छोटे खूबसूरत देश अतिथियों से भरने लगे। ये वो अतिथि थे, जिन्हें कभी लौटना नहीं था। अतिथियों की भूख बढ़ने लगी। जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं जब सरलता से पूरी होने लगीं तो उन्होंने कहा, यह भी दो, वह भी लाओ। ब्रेड दिया है तो बटर लगाओ! यूरोप ने मक्खन लगाया। प्याला भर भर दिया। अतिथि गटागट सुड़कने लगे। पर अतिथियों की क्षुधाग्नि शांत ही कहां होती थी। फिर अतिथियों ने छीनना, दावा ठोकना शुरू किया। वे टिड्डों की तरह उड़ने लगे। सड़कों पर नमाज। बुर्खे वाला समाज। आधुनिकता के समंदर किनारे लेटे-लेटे अधनंगी देह पर धूप सेक रहे यूरोप ने जब तक आंखें खोलीं-- टिड्डे एक तिहाई फसल चट कर चुके थे। कभी न अस्त होने वाली बर्तानिया हुकूमत पस्त हो उठी। स्वीडन स्विट्जरलैंड जैसे हरे भरे शिखरों वाले देश जलने लगे।जो आजतक नहीं देखा था, देखने लगे। फ्रांस ने नयी क्रांति देखी।
यूरोप बारूद के ढेर पर बैठा है। अब समानता और सेक्यूलरिज्म नहीं चल सकता। अब या तो मूल यूरोप बचेगा या तबाह हो जाएगा। ये तो छोटी-मोटी डाक्यूमेंटरी फिल्में हैं। अभी तो महाख्यान रचे जाएंगे । लेकिन ये छोटी फिल्में ही यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि चौदह सौ वर्ष से चली आ रही एक भीड़ पूरी दुनिया में एक ही सिद्धांत पर चलती है। उस भीड़ के लिए न कोई मनुष्य है न कोई समाज। न कोई आन धर्म, न उसके देवता। न कोई जीवन-दर्शन। एक ही सच है। जो उन्हें नहीं मानता वह काफिर है। सभी काफिरों को समाप्त होना होता है। इससे सरलतर सिद्धांत खोजे नहीं मिलता। अब यूरोप को अपना रास्ता चुनना होगा। वह समाप्ति के रास्ते पर चलना चाहता है या संघर्ष को चुनता है। दोनों ही रास्ते अपार कठिनाइयों से भरे हुए हैं। चुप रहना यानी समापन को चुनना। प्रतिरोध करना यानी संघर्ष रक्तपात अग्नि की लपटों में धंसना। तय यूरोप को करना है।
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