१६ कलाएँ

 चक्रवर्ती सम्राट राम बारह कला और श्री कृष्ण जी सोलह कलाओ के थे ज्ञाता ! जानिये कलाओ के रहस्य को !

राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भीआपने सुना होगा। आखिर ये 16 कलाएं क्या हैउपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है।आपने सुनाहोगाकुमतिसुमतिविक्षितमूढ़क्षितमूर्च्छित,जाग्रत,चैतन्य,अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होताहै,जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है। चन्द्रमा की सोलह कला:अमृतमनदापुष्पपुष्टितुष्टिध्रुतिशाशनीचंद्रिकाकांतिज्योत्सनाश्रीप्रीतिअंगदापूर्ण और पूर्णामृत। इसी को प्रतिपदादूजएकादशीपूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।

उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है।जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है।चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्णप्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है

मनुष्य (मनकी तीन अवस्थाएं :प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता हैजाग्रतस्वप्न और सुषुप्ति। क्या आपइन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैंजगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगतजिसकी अनुभूति जाग्रतअवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगतजिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगतजिसकी अनुभूति सुषुप्ति मेंहोती है। तीन अवस्थाओं से आगेसोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछनहीं जाना और  समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलहअवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।

इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।


इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।

1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।

विस्तार से...

1.अग्नि:-बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है।

2.ज्योति:-ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होताजाता है।

3.अहः-दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।

16 कला - 15कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला = 16

1.बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।

2.अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।

3.चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है।

4.अहंकार नष्ट हो जाता है। 5.संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है।

6.आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है।

7.वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।

8.अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति  जाती है।

9.जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदीसमुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।

10.पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती हैनींदभूख प्यास नहीं लगती।

11.जन्ममृत्युस्थिति अपने आधीन हो जाती है।

12.समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं।

13.समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।

14.सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारणकर सकता है।

15.कारण का भी कारण हो जाता है।यह अव्यक्त अवस्था है।

16.उत्तरायण कलाअपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम,कृष्ण यहां उत्तरायण के प्रकाशकी तरह उसकी दिव्यता फैलती है।

सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्तपुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।

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