भारत में ईसामसिह

 ईसा के इसके बाद के जीवन के ऊपर खुलासा जर्मन विद्वान् होल्गर क्रिस्टेन ने अपनी पुस्तक Jesus Lived In India में किया है। क्रिस्टेन ने अपनी पुस्तक में रुसी विद्वान निकोलाई नोटोविच की भारत यात्रा का वर्णन करते हुए बताया है कि निकोलाई 1887 में भारत भ्रमण पर आये थे। जब वे जोजिला दर्र्रा पर घुमने गए तो वहां वो एक बोद्ध मोनास्ट्री में रुके, जहाँ पर उनको Issa नमक बोधिसत्तव संत के बारे में बताया गया। जब निकोलाई ने Issa की शिक्षाओं, जीवन और अन्य जानकारियों के बारे में सुना तो वे हैरान रह गए क्योंकि उनकी सब बातें जीसस/ईसा से मिलती थी। इसके बाद निकोलाई ने इस सम्बन्ध में और गहन शोध करने का निर्णय लिया और वो कश्मीर पहुंचे जहाँ जीसस की कब्र होने की बातें सामने आती रही थी। निकोलाई की शोध के अनुसार सूली पर से बचकर भागने के बाद जीसस टर्की, पर्शिया (ईरान) और पश्चिमी यूरोप, संभवतया इंग्लैंड से होते हुए 16 वर्ष में भारत पहुंचे। जहाँ पहुँचने के बाद उनकी माँ मेरी का निधन हो गया था।


जीसस यहाँ अपने शिष्यों के साथ चरवाहे का जीवन व्यतीत करते हुए 112 वर्ष की उम्र तक जिए और फिर मृत्यु के पश्चात् उनको कश्मीर के पहलगाम में दफना दिया गया। पहलगाम का अर्थ ही गड़रियों का गाँव हैं। और ये अद्भुत संयोग ही है कि यहूदियों के महानतम पैगम्बर हजरत मूसा ने भी अपना जीवन त्यागने के लिए भारत को ही चुना था और उनकी कब्र भी पहलगाम में जीसस की कब्र के साथ ही है। संभवतया जीसस ने ये स्थान इसीलिए चुना होगा क्योंकि वे हजरत मूसा की कब्र के पास दफ़न होना चाहते थे। हालाँकि इन कब्रों पर मुस्लिम भी अपना दावा ठोंकते हैं और कश्मीर सरकार ने इन कब्रों को मुस्लिम कब्रें घोषित कर दिया है और किसी भी गैरमुस्लिम को वहां जाने की इजाजत अब नहीं है। लेकिन इन कब्रों की देखभाल पीढ़ियों दर पीढ़ियों से एक यहूदी परिवार ही करता आ रहा है। इन कब्रों के मुस्लिम कब्रें न होने के पुख्ता प्रमाण हैं। सभी मुस्लिम कब्रें मक्का और मदीना की तरफ सर करके बनायीं जाती हैं जबकि इन कब्रों के साथ ऐसा नहीं है। इन कब्रों पर हिब्रू भाषा में मोसेस और जोशुआ भी लिखा हुआ है जो कि हिब्रू भाषा में क्रमश मूसा और जीसस के नाम हैं और हिब्रू भाषा यहूदियों की भाषा थी। अगर ये मुस्लिम कब्र होती तो इन पर उर्दू या अरबी या फारसी भाषा में नाम लिखे होते। सूली पर से भागने के बाद ईसा का प्रथम वर्णन तुर्की में मिलता है। पारसी विद्वान् एफ मुहम्मद ने अपनी पुस्तक जमी उत तुवारिक में लिखा है कि Nisibi (Todays Nusaybin in Turky) के राजा ने जीसस को शाही आमंत्रण पर अपने राज्य में बुलाया था। इसके आलावा तुर्की और पर्शिया की प्राचीन कहानियों में यूज आसफ नाम के एक संत का जिक्र मिलता है। जिसकी शिक्षाएं और जीवन की कहनियाँ ईसा से मिलती हैं। यहाँ आप सब को एक बात का ध्यान दिला दू कि इस्लामिक नाम और देशों के नाम पढ़कर भ्रमित न हो क्योंकि ये बात इस्लाम के अस्तित्व में आने से लगभग 600 साल पहले की हैं। यहाँ आपको ये बताना भी महत्वपूर्ण है कि कुछ विद्वानों के अनुसार ईसाइयत से पहले अलेक्जेंड्रिया तक सनातन और बौध धर्म का प्रसार था। इसके आलावा कुछ प्रमाण ईसाई ग्रंथ अपोक्रिफा से भी मिलते हैं। ये देवदूत के लिखे हुए ग्रंथ हैं लेकिन चर्च ने इनको अधिकारिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं किया और इन्हें सुने सुनाये मानता है। अपोक्रिफ़ल (Act of Thomas) के अनुसार सूली पर लटकाने के बाद कई बार जीसस सेंट थॉमस से मिले भी और इस बात का वर्णन फतेहपुर सिकरी के पत्थर के शिलालेखो पर भी मिलता है। इनमे अग्रफा शामिल है जिसमे जीसस की कही हुई बातें लिखी हैं जिनको जान बुझकर बाइबिल में जगह नहीं दी गयी और जो जीसस के जीवन के अज्ञातकाल के बारे में जानकारी देती हैं। इसके अलावा उनकी वे शिक्षाएं भी बाइबिल में शामिल नहीं की गयी जिनमे कर्म और पुनर्जन्म की बात की गयी है जो पूरी तरह पूर्व के धर्मो से ली गयी है और पश्चिम के लिए एकदम नयी चीज थी। लेखक क्रिस्टेन का कहना है की इस बात के 21 से भी ज्यादा प्रमाण हैं कि जीसस Issa नाम से कश्मीर में रहा और पर्शिया व तुर्की का मशहूर संत यूज आसफ जीसस ही था। जीसस का जिक्र कुर्द लोगों की प्राचीन कहानियों में भी है। क्रिस्टेन हिन्दू धर्म ग्रंथ भविष्य पुराण का हवाला देते हुए कहता है कि जीसस कुषाण क्षेत्र पर 39 से 50 AD में राज करने वाले राजा शालिवाहन के दरबार में Issa Nath नाम से कुछ समय अतिथि बनकर रहा। इसके अलावा कल्हण की राजतरंगिणी में भी Issana नाम के एक संत का जिक्र है जो डल झील के किनारे रहा। इसके अलावा ऋषिकेश की एक गुफा में भी Issa Nath की तपस्या करने के प्रमाण हैं। जहाँ वो शैव उपासना पद्धति के नाथ संप्रदाय के साधुओं के साथ तपस्या करते थे। स्वामी रामतीर्थ जी और स्वामी रामदास जी को भी ऋषिकेश में तप करते हुए उनके दृष्टान्त होने का वर्णन है।

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