द स्टोरी ऑफ़ जीरो

भारतीय दर्शन में शून्य और शून्यवाद का बहुत महत्व है। शून्य के आविष्कार को लेकर पश्चिमी जगत के विद्वान ये मानने को तैयार नहीं थे कि शून्य के बारे में पूरब के लोगों को जानकारी थी। लेकिन सच ये है कि न केवल अंकों के मामले में विश्व, भारत का ऋणी है, बल्कि भारत ने अंकों के अलावा शून्य की खोज की। शून्य  का अपने आप में महत्व शून्य है। लेकिन ये शून्य का चमत्कार है कि यह एक से दस, दस से हजार, हजार से लाख, करोड़ कुछ भी बना सकता है। शून्य की खासियत है कि इसे किसी संख्या से गुणा करें अथवा भाग दें, परिणाम शून्य ही रहता है।

भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर'  (अर्थ: खाली) नाम से प्रचलित हुआ फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में 'जीरो' (zero) कहते हैं। शून्य के प्रयोग के बारे में पहली पुख्ता जानकारी ग्वालियर में एक मंदिर की दीवार से पता चलता है। मंदिर की दीवार पर लिखे गए लेखों (900 AD) में शून्य के बारे में जानकारी दी गई थी। शून्य के बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्कस डी सुटॉय कहते हैं कि आज हम भले ही शून्य को हल्के में लेते हैं, लेकिन सच ये है कि शून्य की वजह से  फंडामेंटल गणित को एक आयाम मिला। बख्शाली पांडुलिपि की तिथि निर्धारण से एक बात तो साफ है कि भारतीय गणितज्ञ तीसरी-चौथी शताब्दी से शून्य का इस्तेमाल कर रहे थे। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि भारतीय गणितज्ञों ने गणित को एक नई दिशा दी।

भारतीय दर्शन में शून्य का जिक्र:

यूनानी दार्शनिक सृष्टि के 4 तत्व मानते थे, जबकि भारतीय दार्शनिक 5 तत्व। यूनानी दार्शनिक आकाश को तत्व नहीं मानते थे। उनके अनुसार आकाश जैसा कुछ नहीं है जबकि भारतीय दार्शनिकों के अनुसार जो नहीं है जैसा दिखाई देता है वही शून्य है। पाइथागोरस ने इस बात को स्वीकार किया था। आकाश को नथिंग (कुछ नहीं) कहते थे। नथिंग का अर्थ शून्य होता है। 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध के समकालीन बौद्ध भिक्षु विमल कीर्ति और मंजूश्री के बीच जो संवाद हुआ था वह शून्य को लेकर ही था। बौद्धकाल के कई मंदिरों पर शून्य का चिह्न अंकित है ।

 शून्य की कहानी का दिलचस्प इतिहास:

भारत में लगभग 200 (500) ईसा पूर्व छंद शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य हुए हैं, जिन्हें द्विअंकीय गणित का भी प्रणेता माना जाता है। अधिकतर विद्वान इन्हें शून्य का आविष्कारक मानते हैं। पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को यदि गणितीय दृष्टि से देखें तो एक तरह से वे द्विअंकीय (बाइनरी) गणित का कार्य करते हैं और दूसरी दृष्टि से उनमें दो अंकों के घन समीकरण तथा चतुर्घाती समीकरण के हल दिखते हैं। गणित की इतनी ऊंची समझ के पहले अवश्य ही किसी ने उसकी प्राथमिक अवधारणा को भी समझा होगा। अत: भारत में शून्य की खोज ईसा से 200 वर्ष से भी पुरानी हो सकती है।

भारत में उपलब्ध गणितीय ग्रंथों में 300 ईस्वी पूर्व का भगवती सूत्र है जिसमें संयोजन पर कार्य है तथा 200 ईस्वी पूर्व का स्थनंग सूत्र है जिसमें अंक सिद्धांत, रेखागणित, भिन्न, सरल समीकरण, घन समीकरण, चतुर्घाती समीकरण तथा मचय (पर्मुटेशंस) आदि पर कार्य हैं। सन् 200 ईस्वी तक समुच्चय सिद्धांत के उपयोग का उल्लेख मिलता है और अनंत संख्या पर भी बहुत कार्य मिलता है।

गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए। इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है। शून्य के कारण ही शालिवाहन नरेश के काल में हुए नागार्जुन ने शून्यवाद की स्थापना की थी। शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिका नामक विभाग का मत या सिद्धांत है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है।

आर्यभट्ट ने अंकों की नई पद्धति को जन्म दिया था। उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में भी उसी पद्धति में कार्य किया है। आर्यभट्ट को लोग शून्य का जनक इसलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय के गणितपाद 2 में एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है। स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात मतलब प्रत्येक अगली संख्या पिछली संख्या से दस गुना है। उनके ऐसे कहने से यह सिद्ध होता है कि निश्चित रूप से शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है।

7वीं शताब्दी में ब्रह्मगुप्त के समय में शून्य से संबंधित विचार कम्बोडिया तक पहुंच चुके थे। दस्तावेजों से पता चलता है कि कम्बोडिया से शून्य का विस्तार चीन और अरब जगत में भी हुआ। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया।  यही नहीं 12वीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुंचा। ब्रह्मगुप्त ने अपने ग्रंथ 'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' में शून्य की व्याख्या अ-अ=0 (शून्य) के रूप में की है। श्रीधराचार्य अपनी पुस्तक 'त्रिशविका' में लिखते हैं कि 'यदि किसी में शून्य से जोड़ दे तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है और यदि किसी संख्या में शून्य से गुणा करते हैं तो गुणनफल भी शून्य ही मिलता है।’

12 वीं शताब्दी में भाष्कराचार्य ने शून्य द्वारा भाग देने का सही उत्तर दिया कि, उसका फल अनंत है। इसके अलावा दुनिया को ये बताया कि अनंत संख्या में से कुछ घटाने पर या कुछ जोड़ने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

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