बदलता भारत

 एक दौर ऐसा भी था जब उदारीकरण के नाम पर  चीन निर्मित सामानों से भारतीय बाजार पटने लगे थे, जिसकी शुरुआत 90 के दशक मे हो गयी थी जब मनमोहन सिंह भारत के वित्त मंत्री बने | दुनिया के सबसे काबिल और पढ़े लिखे अर्थशस्त्री, दो टके का अनपढ़ चायवाला नहीं 


और जब वो प्रधानमंत्री बने तो ये उदारीकरण इतना बढ़ा कि क्या काग़ज़, क्या सजावटी लाइटें, क्या खिलौने, क्या पिचकारियाँ, क्या कल पुर्जे सब कुछ चीन से सस्ते दामों पर किन्तु घटिया गुणवत्ता के, भारतीय उद्योगों और रोजगार की कीमत पर हमारे  बाजारों मे खपाये जाने लगे |


फिर तो धड़ाधड़ छोटे , मझोले, बड़े हर श्रेणी के कल कारखाने बंद होने लगे और उद्योगपति, फैक्टरी मालिक भारतीय बाजारों के लिए चीनी सामानों के आयातक और विक्रेता बन गए |


लगातार बंद होती फैक्ट्रियों के कारण रोजगार कम होते गए... पर जनता को ये घुट्टी पिलाई जाने लगी कि भारतीय उद्योगों मे निर्मित सामन महंगे और चीन मे निर्मित सामन बहुत सस्ते होते हैं... सो इससे आम जनता का फायदा होगा, जेब मे खर्च करने को पैसे अधिक बचेंगे |


गरीबी हटाने का ये भी एक और अनोखा काँग्रेसी फार्मूला था... पर न तब के अर्थशास्त्रियों न बेरोजगारी के चिंतकों और मीडिया के ज्ञानियों ने इसकी व्याख्या की कि आखिर जब कल कारखाने एक के बाद एक बंद होते जाएंगे तो रोजगार कहाँ से सृजित होंगे |


 हाँ तब कि सरकारों, नीति-नियंताओं, राजनेताओं के पास एक सदाबहार फार्मूला जरूर था और वो था आरक्षण का झुनझुना... इतनी भारी तादात मे सरकारी नौकरियां कभी भी रही ही नहीं न ही सम्भव है ... पर "जिनकी जितनी संख्या भारी - उनकी उतनी भागीदारी" जैसे लुभावने नारों और आरक्षण के नाम पर लड़-कट मरो.... अत्यंत अल्प संख्या मे जो सरकारी भर्तियां निकलती भी तो उसमे ऊंची पहुंच और भ्रष्टाचार का बोलबाला रहता...

....... पर आरक्षण की भंग ऐसी थी कि  सालों साल जनता को उसी के नशे मे मस्त रख.. सत्ता सुंदरी के आगोश मे राजनेता, दलाल, न्यायपालिका, कार्यपालिका और लोकतंत्र का चौथा खंबा सभी लिप्त हो आनंद लूटते रहे  |


आरक्षण कितना भी बढ़ या घट जाए पर ये असंभव है कि सिवाय कुछ हजार लोगों के सभी को सरकारी नौकरियां मिल सकें | अधिकांश जनता को जीविकोपार्जन के समान रूप से अवसर तभी मिलेंगे जब अर्थव्यवस्था मे निरंतर मजबूती आए, अधिक से अधिक उद्योगों, कल कारखानों की स्थापना हो, बिजली के उत्पादन मे वृद्धि हो, कानून व्यवस्था बेहतर रहे, देश मे ही उच्च गुणवत्ता के रोजगारमूलक शिक्षण, शोध एवं प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना निरंतरता से होती रहे |


          दो दशक बाद पहली बार ऐसा हुआ कि होली मे चीन से पिचकारियों का आयात पहले की तुलना मे सिर्फ 5 % ही हुआ... पिछले वर्ष की  होली तक 450 करोड़ की पिचकारियों का आयात हर वर्ष होता था जो इसबार घट कर 20-25 करोड़ ही रह गया ... इसमे कोरोना और लॉकडाउन का योगदान तो था ही सबसे बड़ा योगदान सोशल मीडिया की वज़ह से जागरुक जनता द्वारा चीनी सामानों का बहिष्कार और मेक इन इंडिया को बढावा देना भी था |


इसी का नतीज़ा है कि अबतक कानपुर मे डेढ़ दर्जन और दिल्ली एनसीआर मे 250 से ज्यादा छोटी बड़ी उत्पादक इकाइयां अस्तित्व मे आ चुकी हैं और इन्होंने 400 करोड़ से उपर की पिचकारियों का उत्पादन इस बार किया, साथ मे चीनी खिलौनों पर आयात शुल्क बढ़ने से भारतीय उत्पादकों ने फिर से अपनी इकाइयों को लगाना और चालू करना शुरू कर दिया है |


इतना ही नहीं मोबाइल फोन,इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, सजावटी लाइटों, बिजली उपकरणों, केमिकल, आयुर्वेदिक एवं अँग्रेजी दवाओं रक्षा उपकरण , कल-पुर्जों आदि की उत्पादन इकाईयां तेजी से पुनर्स्थापित होने लगी हैं, नए नए स्टार्टअप्प भी शुरू होने लगे हैं जो रोजगार  आत्मनिर्भर परिवार की दिशा मे  सुखद भविष्य का संकेत हैं!

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