ग़ुलामी की मानसिकता से मुक्ति
क्या आप Henry Francis को जानते हैं? कभी आपने क्या Abide with Me गाना सुना है? घबराइए मत, यदि नहीं सुना है तो क्यूंकि Henry Francis एक स्कॉटिश अंग्रेज पादरी था जिसकी मृत्यु तपेदिक रोग से हुई थी और जब वो अपनी मृत्यु शैय्या पर था तो उसके लिए यह प्रार्थना Abide with Me गाईगई थी| कोई भी यह अपेक्षा नहीं करता की एक सामान्य भारतीय Henry Francis अथवा उसकी इस प्रार्थना को याद रखेगा|भारतीय कभी भी उससे अथवा उसकी प्रार्थना से अपना जुडाव महसूस नहीं कर सके लेकिन उसके इस प्रार्थना की धुन हमेशा से भारत के गणतंत्र दिवस के समापन के राजकीय कार्यक्रम Beating Retreat में बजाई जाती रही| यह धुन सदैव भारतीय सेना के बैंड द्वारा स्वाधीनता के बाद से बजाई जा रही थी| पिछले ७५ वर्षों से किसी भी सरकार को इस गुलामी के प्रतिक को हटाने का विचार मन में नहीं आया जिसका कोई सम्बन्ध भारतीय मानस से नहीं था| स्वाधीन भारत को ७५ वर्ष का एक लम्बा इंतजार करना पड़ा यह जानने में की Abide with Me का कोई भी स्थान किसी भी भारतीय के ह्रदय में नहीं है| यह तो वर्तमान भारत की सरकार है जिसने इसको हटाने का निर्णय कर इसकी जगह सभी भारतियों के ह्रदय को स्पंदन करने वाले गीत ‘ए मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी’ की धुन से किया जिसके गीतकार स्वर्गीय प्रदीप जी थे तथा जो गीत दशकों से भारतीय मानस पर छाया हुआ था| इस निर्णय के खिलाफ भारत के सेक्युलर दलों ने आवाज उठाई मानो देशभक्ति के प्रसिद्ध गीत की धुन बजाना गलत निर्णय था, यह उनके भारत के स्वत्व से कटे होने का ही प्रमाण था| वास्तव में १९४७ में हमने स्वाधीनता प्राप्त की थी,स्वतंत्रता नहीं| स्वाधीनता एवं स्वतंत्रता- ये दोनों ही शब्द सामान्यतः समानार्थी मान कर हम सब प्रयोग करते हैं| परन्तु यदि थोडा गहराई से विचार करें तो ध्यान में आता है की दोनों के अर्थ में भिन्नता है| स्वाधीनता शब्द बना है ‘स्व व अधीन’ से यानि अपने लोगों के अधीन| इसी प्रकार स्वतंत्र शब्द बना है ‘स्व व तंत्र’ से यानि अपना तंत्र| इसकी और व्याख्या करी तो अपना तंत्र यानि अपने विचारों पर आधारित तंत्र|
१९४७ से पूर्व के १००० वर्षों का हमारा यानि ‘स्व’ का परकीयों से संघर्ष का कालखंड रहा है|मुस्लिम आक्रमण कालखंड में हम लगत्रार संघर्ष करते रहे, कहीं पराजित हुए तो पुनः जीतते भी रहे|इस दौरान मुस्लिम आक्रमणकारियों ने विजय प्राप्त कर कुछ स्थानों पर अपना राज्य भी स्थापित किया, पर उनसे भी लगातार संघर्ष चलता रहा|उन्होंने भारतवासियों का मतान्तरण भी किया और शाशन भी, लेकिन वे हमारे सोचने के तरीकों पर कभी भी कब्ज़ा नहीं कर पाए| १८ वीं शताब्दी से यूरोपियों के सतत आक्रमण भारती पर शुरू हुए| १७५७ के प्लासी के युद्ध की विजय से अंग्रेजों का प्रभाव भारत में बढ़ता गया जो अंततः भारत के काफी बड़े भूभाग पर उनके प्रत्यक्ष शासन के रूप में परिवर्तित हुआ| अंग्रेज समझ गए थे केवल कुछ हजार सैनिकों के बल पर वे अपना स्थायी शासन नहीं स्थापित कर सकते|अतः उन्होंने भारत को जानने, समझने के प्रयास शुरू कर दिए| इसी कड़ी में सर्वप्रथम १७६७ इसवी में Survey of India की स्थापना कर उसे भारतीय सम्पदा का भिन्न भिन्न प्रकार से सर्वे करने का काम सौंपा, जैसे- Topographical, Geographical, Geological, Anthropological, Social, Religious, Education, Linguistic, Environmental, Agricultural, Social आदि|साथ ही जनवरी १७८४ में Royal Asiatic Society of India ki स्थापना William Jones के नेतृत्व में की और भारत के सभी साहित्य, ग्रंथों, परम्पराओं का भी अध्ययन शुरू कर दिया| इस संस्था में १८२८ तक किसी गैर यूरोपियों को प्रवेश नहीं दिया गया| इसके कुछ वर्षीं पश्चात १८०६ में James Mill भारत का इतिहास लिखने का काम सौंपा जो उसने बिना भारत आये ही पूरा किया|१८३५ इसवी में उन्होंने English education Act पारित किया तथा यह सुनिश्चित किया की भारत में केवल अंग्रेजी शिक्षा को ही आर्थिक सहायता एवं प्रोत्साहन दिया जायेगा- भारत की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को हतोत्साहित किया जाये ताकि भारत में ऐसा एक प्रभावी वर्ग खड़ा हो सके जो शक्ल सूरत व जनम से तो भारतीय हो परन्तु व्यवहार, खान-पान शिक्षा एवं सोचने की दृष्टि से पूर्णतया अंग्रेज हो| वस्तुतः अंग्रेजों ने जो कर्यपद्धिती अपनाई वह थी- सर्वप्रथम तथ्यों का अभिलेखीकरण( Documentation) तत्पश्चात उनका अध्ययन , फिर लेखन तथा निष्कर्ष व तदनुरूप कार्ययोजना बना कर क्रियान्वयन|
तो १९४७ से पूर्व हम पर अंग्रेजों का शासन था जो हमारे लिए परकीय थे अर्थात हम पराधीन थे| अंग्रजों को हटा कर उनकी जगह अपने लोगों का अस्तु भारतियों का शासन लाना यानि स्वाधीन होना था| स्वाभाविक रूप से यह मान लिया गया की जब देश स्वाधीन होगा, अपने लोगों का शासन आएगा तब सारीव्यवस्थायें व तंत्र भी ‘स्व’ के विचार पर आधारित होंगे, यानि देश स्वतंत्र हो जायेगा| परन्तु गहराई से जब विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि १५ अगस्त १९४७ को हम स्वाधीन तो हुए पर सही अर्थों में स्वतंत्र नहीं- हमारे ऊपर प्रभुत्व एवं शासन करने वाला वर्ग काफी बड़ी संख्या में Indian by Birth But British by Tasteकी मानसिकता का बन चूका था| पश्चिमी श्रेष्ठता को स्थापित करनेवाले एवं माननेवाले तंत्र ने पुरे देश को अपने मकडजाल में जकड़ा हुआ था| उस ‘पर’ आधारित तंत्र से १९४७ के बाद की हमारी यात्रा में भारत के ‘स्व’ का संघर्ष भी सतत चलता आ रहा है| भारत की स्वाधीनता के इस अमृत काल में हमारी आगे की यात्रा सही अर्थों में स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर की होनी चाहिए|
किसी भी पराधीन देश के लिए स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वाधीनता एक अनिवार्य पूर्व शर्त होती है|स्वाधीनता एवं स्वतंत्रता में सामान रूप से आने वाला यह शब्द‘स्व’, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है| किसी भी देश के सन्दर्भ में ‘स्व’अर्थात उस देश की पहचान है| ‘स्व’ में देश का इतिहास,महापुरुष, मान्यताएं, परम्पर्यें, आकांक्षायें- स्वप्न इत्यादि के साथ साथ उस देश का तत्व ज्ञान, विचार्प्रनाली, जीवन दृष्टि, विश्वदृष्टि, निसर्ग दृष्टि इत्यादि भी समाहित हैं| भारत की दृष्टि से इन सबका मूल आधार ‘अध्यात्म’ है| स्वामी विवेकानंदा जी ने भी कहा है- “ Every Country has a destiny, a role she has to play in this world. India’s destiny in this context is Spirituality.”
जब हम स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर बढ़ते हैं तो इसका प्रथम चरण तो वैचारिक, मानसिक एवं बौद्धिक गुलामी से मुक्तता ही है क्यूंकि तभी हम सही अर्थों में अपने ‘स्व’ को पहचान सकेंगे| स्वाधीनता के बाद स्वतंत्रता की यह स्वाभाविक प्रक्रिया भारत में प्रभवि रूप से हो न सकी| इसका मुख्य कारण है की हम लोग अपने ‘स्व’ को भूल गए अर्थात अपने मूल इतिहास, अपने महापुरुष- उनके जीवन व ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में उनके योगदान को भूल गए और इस कारण उनके प्रति गर्व का भाव, सामान आंकाक्षा, तत्वज्ञान, विचार प्रणाली , जीवन- विश्व- निसर्ग दृष्टि, अच्छे- बुरे की व शत्रु- मित्र की समान संकल्पना इत्यादि सबका विस्मरण हमें हो गया| संक्षेप में कहें, तो हम अपनी संस्कृति भूल कर परानुकरण करने में ही श्रेष्ठता मानने लगे| यह सब कुटिल अंग्रेजों के १५०-२०० वर्षों के शासन में हो गया, जो अरब- तुर्क- मंगोल- मुग़ल आदि के ५००- ६०० वर्षों के शासन के दौरान भी न हो सका था| इसका मुख्य कारण अंग्रेजी शिक्षा पद्धिति व उनके तंत्र द्वारा फैलाया गया वैचारिक संभ्रम ही है| हम वैचारिक- मानसिक- बौद्धिक गुलाम बन गए यानि हमारी बुद्धि का परतंत्रीकरण हो गया| हम Colonized Mindset वाले बन गए|अतः अब सबसे पहले हमें इसी वैचारिक- मानसिक- बौद्धिक गुलामी को ही हटाना होगा – Decolonization of Mind, करना होगा| इसके अगले चरण में Recultarization of Mind का हमारा प्रयास होना चाहिए|
Reculturization of Mind में सर्वप्रथम हमें कुछ बातों पर ध्यान दे कर, मन में अच्छी तरह बैठा कर उसको प्रचारित करना व गर्व करना होगा, जैसे -
इस वैचारिक गुलामी के कुछ नित्य जीवन के छोटे लगने वाले उदाहरणों को भी हमें देखना पड़ेगा क्यूंकि उक्त उदाहरणों से हीमानसिकता बनती ह कहा भी गया है- छोटो छोटी बातों पर ध्यान देने से ही बड़े बड़े कार्य संपादित हो जाते हैं|
इस तरह के अनेकों छोटे छोटे दिखने वाले व्यवहार के उदाहरण देखें जा सकते हैं| इनके बारे में सतत सावधानी राखी तो मन- मस्तिष्क का Decolonization होने में सहायता होती है|तत्पश्चात बड़ी बड़ी बातों के सम्बन्ध में सही प्रकार से सोचने हेतु मन- मस्तिष्क का Reculturization होना भी आवश्यक है| इस दृष्टि से अपने ‘स्व’ को भली- भांति जानना, समझना और मानना तदुनुरूप व्यवहार करना पड़ेगा, तभी हम अपनी संस्कृति से, ‘स्व’से पुनः अच्छी तरह जुड़ पाएंगे|
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम जी कहते थे- “भारत को विकसित देशों की श्रेणी में लाना है, ऐसा भारत जिसकी जडें हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में होगी|” इस सबके लिए हमें मुख्यतः मानसिक व बौद्धिक धरातल पर प्रयास करने होंगे| इन प्रयासों में कई बार अपनों से, तो कई बार स्वयं से भी लड़ना पड़ेगा| यह बात परायों से लड़ने की तुलना में अधिक कठिन होती है| इस लड़ाई का पहला चरण है कि अपने स्वयं को मानसिक- वैचारिक-बौद्धिक गुलामी से मुक्त करना तथा अपने स्वयं के ‘स्व’ को जानना, मानना और उस पर श्रद्धा रखना| इसके बाद अपने परिवारीजन और निकट के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले लोगों को भी ऐसा बनाने के प्रयास करने होंगे|
हमारे सारे तंत्र का आधार भारत का ‘स्व’ हो, इस हेतु सम्बंधित तंत्रों के तज्ञ लोगों को उनके विषय से सम्बंधित तंत्र का भारत का चिंतन क्या है, यह बात समझने हेतु भारत के चिंतकों द्वारा लिखित साहित्य, परम्पराओं का गहराई से अध्ययनं करना होगा|साथ ही, भारत के इतिहास में उस प्रकार का तंत्र पहले कैसे, किस प्रकार से काम करता था- यह भी समझना होगा| इसके अलावा अन्यान्य देशों में आज उस तंत्र में किस प्रकार का व्यवहार हो रहा है, उसे भी समझना पड़ेगा| इस सारी जानकारी के आधार पर भारत की वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत कीबातों को कालसुसंगत और विदेश की अच्छी बातों को देशसुसंगतबनाते हुए इस बौद्धिक- मानसिक गुलामी के चक्र से हमें बहार निकलना होगा| भारत के चिंतन में सदैव विश्व कल्याण, सम्पूर्ण चर- चराचर जगत के कल्याण की बात है, अतः भारत के कल्याण में विश्व का कल्याण ही है|विश्व का इतिहास देखेंगे तो ध्यान में आएगा कि समृद्ध, शक्तिशाली, स्वाधीन व स्वतंत्र भारत सदैव विश्वगुरु रहा है और इस कारण अन्य देशों व समाज का सदैव भला ही हुआ है| जबकि अन्य देश जब भी शक्तिशाली हुए तो वे विश्वविजेता बने या बनाने के प्रयास किये औरर इसके कारणअन्य देशों को कष्ट हुए या हो रहे हैं|विश्व के अनेक बुद्धिजीवी आज भारत से अपेक्षा कर रहे हैं- प्रसिद्ध समाजशास्त्री व अमेरिकी लेखक, चिन्तक Samuel Huttington अपनी पुस्तक Clash of Civilizations में लिखते हैं- ‘ India should become the world super power, not for herself but for the sake of peace to prevail and mankind to survive.’
अमेरिका के ही उपराष्ट्रपति रहे व प्रसिद्ध पर्यावरणविद Al Gore कहते हैं- ‘We have been on the wrong track for the last 300 years. It’s time to Rethink and turn to East( Bharat) for guidance.’
हम भारतवासी अपने इस वैश्विक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वधिन्रा के इस अमृत काल में सन्नद्ध होकर संकल्पित हैं ही|किसी कवि ने सही ही कहा है-
शुद्ध ह्रदय की प्याली में, विश्वास दीप निष्कंप जला कर
कोटि कोटि पग बढे जा रहे, तिल तिल जीवन दीप गला कर
जब तक ध्येय न पूरा होगा, तब तक पग की गति न रुकेगी
आज कहे चाहे जो दुनिया, कल को झुके बिना न रहेगी ||
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