हर विदेशी आक्रांता ने किया है भारतीय जनजाति समाज का शोषण और दमन
अंग्रेजों ने नगरीय समाज से तोड़ने और जनजाति संस्कृति समाप्त करने का षड्यंत्र भी रचा
सल्तनतकाल में केवल भारतीय राजसत्ताओं, मंदिरों, शिक्षण संस्थाओं और नगरों का विध्वंस ही नहीं हुआ था । भारतीय जनजाति समाज का दमन, शोषण और सामूहिक नरसंहार हुआ था । अंग्रेजी सत्ता ने इससे एक कदम आगे पहले जनजातीय समाज को नगरीय समाज से तोड़ा और फिर उनका शोषण करने और उनकी मूल संस्कृति को समाप्त करने का षड्यंत्र भी किया । भारत में अंग्रेजी सत्ता भले समाप्त हो गई पर उनके द्वारा बोये गये विषबीज आज भी फल फूल रहे हैं और योजना पूर्वक जनजातियों को उनकी मूल संस्कृति से दूर कर रहे हैं ।
समय और सत्ता कोई भी रही हो, वह भारत का प्राचीन समाज जीवन हो, सल्तनतकाल हो अथवा अंग्रेजी काल । हर कालखंड के इतिहास में भारतीय जनजाति समाज की भूमिका सदैव अग्रणी रही है । यह भारत राष्ट्र के साँस्कृतिक उन्नयन में भी और विदेशी आक्रमण होने पर अपने रक्त की अंतिम बूँद तक संघर्ष करने में भी। इस समाज को "जनजातीय" नाम अंग्रेजीकाल में मिला । प्राचीन भारत में समाज जीवन केवल दो स्तरीय था । एक वनवासी दूसरे नगर वासी । शिल्प और कौशल आधारित चौसठ प्रकार की कलाएँ सभी विद्यार्थी सीखते थे । राजकुमार भी और सामान्य परिवार के विद्यार्थी भी । इनमें से ही कुछ लोग विभिन्न कलाओं को न केवल आजीविका का माध्यम बना लेते थे अपितु इनके माध्यमसे धन वैभव भी अर्जित कर लेते थे । इन सौसठ प्रकार की कलाओं में फूल माला, मटका, बनाने से लेकर जूता बनाना भी शामिल था । तब भारतीय समाज जीवन केवल दो धाराओं में ही रहा है । एक वनवासी और दूसरे नगरवासी ।इन कलाओं के शिल्पकार अधिकांश वनवासी अर्थात जनजातीय समाज जन ही होते थे । कार्य, दायित्व, गुण और कर्म में अंतर होने के बावजूद संपूर्ण भारतीय समाज का समरस स्वरूप ही रहा है । तब शिक्षा, चिकित्सा और अनुसंधान के सभी केन्द्र वनों में हुआ करते थे । इन्हें आश्रम कहा जाता था । बालक कोई राजपुत्र हो अथवा किसी सामान्य परिवार का, उसे पढ़ने के लिये वनों में ही जाना होता था । रामायण काल में अपने भाइयों सहित रामजी और महाभारत काल में कौरव पाँडवों को पढ़ाने कोई आचार्य महल में नहीं आए थे । सभी पढ़ने के लिये वनों में ही गये थे । इसके अतिरिक्त तबकी समाज व्यवस्था में वानप्रस्थ और संन्यास की अवधि बिताने केलिये भी वनों में जाना होता था । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की दो तिहाई आयु वनों ही व्यतीत होती थी । वानप्रस्थी और संन्यासी सभी स्त्री पुरुष ऋषि आश्रमों के समीप झोपड़ी बनाकर रहा करते थे । ऐसी बस्तियाँ ही वनग्रामों के रूप में उभरी थीं। ऋषियों, महर्षियों के मार्गदर्शन में संचालित इन आश्रमों और वनग्रामों की व्यवस्था और रक्षा का संपूर्ण दायित्व जनजाति समाज के हाथों में हुआ करता था । जनजातीय समाज के बच्चे भी ऋषि आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते थे और सेना में युद्ध भी करते थे । ऋषि आश्रमों की रक्षा केलिये वनवासियों द्वारा किये गये संघर्ष का विवरण भी पुराणों में विस्तार से है । ऐसे ऋषियों की भी बड़ी संख्या है जो या तो वनवासी अर्थात जनजातीय समाज में जन्में थे अथवा उनके माता अथवा पिता में कोई एक इस समाज से संबंधित रहे हैं । महर्षि अगस्त, महर्षि जाबालि और महर्षि बाल्मीकि को उदाहरण माना जा सकता है । मातंग ऋषि की शिष्या माता शबरी भी जनजातीय समाज से थीं । मातंग ऋषि ने अपने आश्रम का उत्तराधिकारी भी माता शबरी को बनाया था । यदि जनजातीय समाज की महिला को ऋषि आश्रम का उत्तराधिकारी बनाया गया था तो, इस प्रसंग से दो बातें स्पष्ट होतीं हैं । एक तो प्राचीन भारत में जनजातीय समाज की महिलाओं को पढ़ने का अधिकार था और दूसरी उनकी योग्यता के आधार पर ऋषि आश्रम का प्रभारी बनाने की परंपरा रही है । महाभारत काल में महर्षि वेदव्यास की माता मछुआरा समाज से थीं और उनका पालन पोषण भी जनजातीय समाज में हुआ था । जनजातीय समाज द्वारा दुर्योधन को बंदी बनाना इस समाज के सशक्त होने का उदाहरण है । महाबली भीम और धनुर्धारी अर्जुन के विवाह जनजातीय युवतियों से होने के वर्णन से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में जनजातीय समाज और नगरीय समाज में कोई भेद नहीं था । वे योग्यता से ऋषि पद भी प्राप्त कर सकते थे और राज परिवारों में वैवाहिक संबंध भी होते थे। भारतीय समाज जीवन में इस समरसता की झलक बाद के इतिहास में भी दिखती है । इसे मगध साम्राज्य में नंद और मौर्य वंश के पूर्वजों से भी समझा जा सकता है ।
भारतीय समाज का यह समरस, सशक्त और संपन्न स्वरूप वाह्य आक्रमणों से विखरने लगा । भारतीय समाज जीवन की संपन्नता ने ही मध्यकाल के आक्रमणकारियों और लुटेरों को आकर्षित किया और हमले शुरु हुये । भारतीय समाज ने मिलकर इन आक्रमण कारियों का सामना किया लेकिन विनाशकारी शक्तियाँ भारी पड़ने लगे । आक्रमणकारियों ने क्रूरता की सभी सीमाएँ तोड़ दीं थीं। सामूहिक नर संहार हुये । ऐसी क्रूरता केवल राजधानी या व्यापारिक केन्द्रों के साथ जनजातीय क्षेत्र में हुई थी । जनजातीय समाज के असंख्य बंधुओं का नरसंहार किया और स्त्री बच्चों को पकड़कर ले गये । इसका विवरण 712 में सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण में मिलता है । उन दिनों सिंध एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था । जो जनजातीय समाज के शिल्प कौशल से ही समृद्ध था । जिस प्रकार आज के सभी नगरों का विकास ग्रामीण क्षेत्रों से आये लोगों से हुआ है । ठीक इसी प्रकार ग्रामों का विकास वनों से आये लोगों से हुआ । जैसे ग्रामों से नगरों में आये लोगों की भाषा भूषा भोजन आदि बदल जाता है उसी प्रकार वनों से ग्रामों में आये लोगों की जीवन शैली भी बदल जाती है । वनों में निवास करने वालों को पहले वनवासी कहते थे उन्हीं को अब जनजातीय कहा जाता है । इस समाज के लोग सेना में भी होते थे और वनग्रामों में कौशल शिल्पकारों के रूप में भी । मोहम्मद बिन कासिम के हमले में अधिकांश बलिदानी इसी समाज के थे । बिल्कुल यही स्थिति सुकुबुद्दीन और फिर महमूद गजनवी के आक्रमण में भी बनी । जनजातीय समाज द्वारा राष्ट्र रक्षा के लिये संघर्ष और बलिदान का जो क्रम 712 में आरंभ हुआ वह फिर कभी थमा नहीं। जब संघर्ष शक्ति घटी तो समूह बनाकर छापामार लड़ाई का सिलसिला आरंभ हुआ। इस छापामार संघर्ष में भी पूरा समाज एक जुट था । इसे हमीरदेव और राणा संग्राम सिंह की सेना के स्वरूप से भी समझा जा सकता है । महाराणा प्रताप या वीर दुर्गा दास राठौर की टोलियों में भी अधिकांश लड़ाके जनजातीय समाज के थे। इस संघर्ष में स्वत्व चेतना तो जीवन्त रही लेकिन संपूर्ण समाज की शिक्षा, साँस्कृतिक चेतना और परंपराओं के सत्य से दूरी हो गयी । दासत्व के उस भीषण अंधकार में जीवन तो किसी प्रकार चला लेकिन विकास पिछड़ गया । प्राण बचाने के संघर्ष में कुछ सत्य ओझल हुये और भ्रामक धारणाएं आकार लेने लगीं । लेकिन इस उथल-पुथल के बीच भी भारतीय समाज जीवन की समरसता में कोई अंतर नहीं आया था। इसकी झलक उस समय के वैवाहिक संबंधों और उपनामों में मिलती है । सोलहवीं शताब्दी में कालिंजर की राजकुमारी दुर्गावती का विवाह गौंडवांना के दलपत शाह से हुआ था। कालिंजर का राजघराना सूर्यवंशी चंदेल क्षत्रिय था। अठारहवीं शताब्दी में सलकनपुर की पुत्री कमलापति का विवाह गिन्नौरगढ़ के शासक निजाम शाह से हुआ था । सलकनपुर का यह राजपरिवार भी सूर्यवंशी क्षत्रिय था। ये तो केवल उदाहरण हैं । ऐसे असंख्य वैवाहिक संबंधों का विवरण इतिहास के पन्नों में है । राजस्थान में "राणा" उपाधि राजपूताने में भी मिलती है और भील जनजाति समाज के योद्धाओं में भी । इसे हम "राणा पूँजा" और "राणा प्रताप" नामों में देख सकते हैं। राणा प्रताप सिसोदिया क्षत्रिय थे और राणा पूँजा भील जनजातीय समाज के । राणा प्रताप और दुर्गा दास राठौर की सेना में अधिकांश यौद्धा जनजातीय समाज से ही थे ।
जनजातीय समाज को नष्ट करने का चौतरफा का षड्यंत्र किया था अंग्रेजों ने
भारतीय चिंतन में प्राणी या मनुष्य को किसी भी प्राकृतिक संपदा का स्वामी नहीं माना, सेवक माना है, सेवक और संरक्षक माना गया है । ताकि प्राकृतिक संपदा समद्ध जिससे आने वाली पीढ़ियों को भी सुरम्य संसार मिले । सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल से पहले समूची वन संपदा के संरक्षण का दायित्व जनजातीय समाज के पास था। सल्तनत काल में जनजातीय समाज के साथ दो प्रकार के अत्याचार हुये । एक तो उनका सामूहिक नरसंहार हुआ दूसरे तलवार की जोर पर मतान्तरण करवाया गया । अलाउद्दीन खिलजी के मालवा पर, अकबर का गौंडवाना पर, शाहजहाँ का बुरहानपुर पर हुये आक्रमणों में जनजातीय समाज के सामूहिक नरसंहार का विवरण इतिहास के पन्नों में है । शाहजहाँ के समय समय पर वार्षिक राजस्व न चुकाने पर बाड़ी और गिन्नौरगढ़ के गौंडवाना शासकों को पकड़कर दरबार में बुलाया गया । इनका मतान्तरण कराकर एक का नाम अल्लादाद शाह और दूसरे का नाम खुदादाद शाह रखा गया । इनके बेटों को भी बंधक बनाया गया । इसका विवरण भी इतिहास के पन्नों में है । लेकिन अंग्रेजी सत्ता केवल यहीं तक नहीं रुकी । उसने दो कदम और आगे बढ़ाए । अंतर केवल इतना रहा कि सल्तनतकाल में मतान्तरण तलवार के जोर पर किया गया जबकि अंग्रेजीकाल में मन और मस्तिष्क में भ्रम फैलाकर। लेकिन दमन की दास्तान सल्तनतकाल की भाँति ही रही । भारत का ऐसा कोई कौना नहीं जहाँ अंग्रेजों ने जनजातीय समाज के लोगों को लाइन में खड़ा करके गोली से न उड़ाया हो । वन संपदा पर अधिकार करने और जनजातीय संस्कृति को समाप्त करने का जो षड्यंत्र अंग्रेजों ने रचा वह पहली दृष्टि की पकड़ में नहीं आता । वह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक है । इतिहास के पन्नो पर जो विवरण उपलब्ध है उसके अनुसार 1757 में प्लासी का युद्ध जीतकर अंग्रेजों ने केवल बंगाल में अपनी सत्ता के पैर ही मजबूत नहीं किये अपितु चर्च ने पूरे भारत में अपने पैर जमाना तेज कर दिया था । दुनियाँ में अंग्रेज जहाँ भी गये उन्होंने समाज को विभाजित करके ही अपनी सत्ता स्थापित की थी। उनकी सत्ता शक्ति का रहस्य ही "डिवाइड एण्ड रूल" मंत्र में छुपा था । अंग्रेजों ने यह फार्मूला केवल युद्ध जीतने तक सीमित नहीं रखा अपितु भारत में अपनी सत्ता को स्थाई बनाने और पूरी संपत्ति पर अपना अधिकार जमाने में भी लागू किया था। उनकी योजना में भारतीयों को केवल शारीरिक दास बनाना भर नहीं था । वे मानसिक और बौद्धिक दास भी बनाना चाहते थे । अपनी योजना क्रियान्वित करने केलिये उन्होंने "डिवाइड एण्ड रूल" फार्मूला यहाँ भी अपनाया । यह दुष्प्रचार अंग्रेजों ने किया था कि भारत के नगरवासी आर्य हैं और आक्रमणकारी भी । भोले वनवासियों को अंग्रेजों की यह विभाजनकारी बात सच्ची लगे इसके लिये उनके चर्च नेटवर्क ने कुछ कूटरचित कहानियों का प्रचार किया और अंग्रेजों नगरीय क्षेत्र के कुछ लोगों को पद प्रतिष्ठा का लालच देकर वन संपदा संग्रहीत करने के काम में लगाया । ये लोग संग्रहण कर्ता जनजातीय समाज के लोगों अत्याचार करते, उनके पारिश्रमिक का पूरा पैसा भी न देते थे इससे दूरियाँ बढ़ी और पूरा लाभ अंग्रेजों ने उठाया । यह कितना बड़ा छल है कि अंग्रेजों ने एक ओर जनजातीय को मूल निवासी तो बताया पर उन्हें वन संपत्ति का कोई अधिकार नहीं था वे केवल नौकर थे । वन संपदा एकत्र करके अंग्रेजों के एजेन्टों को सौंपा करते थे । पूरी वनसंपदा पर अंग्रेजों का अधिकार था । जिस संपदा के संरक्षक कभी जनजातीय समाज के बंधु थे अब वे उसका एक तिनका भी अपने उपयोग में नहीं ले सकते थे । इससे जनजातीय समाज को यदि गुस्सा आता वह सीधा अंग्रेजों नहीं आता था । उनके सामने तो एजेन्टो का चेहरा होता था जो नगरीय समाज के होते थे । जनजातीय समाज के इस गुस्से को चर्च का नेटवर्क मीठी बातें करके अपने प्रति झुकाव पैदा करता था । उन्हें उनकी संस्कृति से दूर करके मतान्तरण कराने करा लिया करते थे । पहले किसी व्यक्ति को उसके अपनों के प्रति गुस्सा दिलाना और फिर सहानुभूति दिखाकर अपने पक्षमें करना, यह अंग्रेजों का एक बड़ा मनोवैज्ञानिक षड्यंत्र था । जनजातीय समाज को अपनी ओर आकर्षित करने केलिये अंग्रेजों ने कुछ स्कूल भी खोल लिये थे ताकि वे छोटे बच्चों का भी ब्रेनवॉश कर सकें। इसी के अंतर्गत उन्होंने भारत हर कौने में जनजातीय समाज के परिवारों का मतान्तरण करवाया ।
अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को वे जनजातीय नायक समझ सके जो शिक्षा ग्रहण करके वनों से बाहर निकले । उन्होंने षड्यंत्र समझकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आरंभ किया । अंग्रेजों के विरुद्ध जनजातीय समाज का यह संघर्ष तीनों प्रकार का था । सशस्त्र संघर्ष भी, क्राँतिकारी संघर्ष भी और अहिसंक आँदोलन भी । इसके उदाहरण भारत के हर क्षेत्र में मिलते हैं।
अब अंग्रेज चले गये । उनकी सत्ता को गये सत्तहत्तर वर्ष बीत गये पर अंग्रेज का नेटवर्क यथावत है जो कुछ लोगों की मानसिकता में भारतीय समाज का एकत्व और स्वत्व नहीं विभक्तीकरण ही है । भारतीय समाज चिंतन का एकत्व सल्तनतकाल की परिस्थियों से दो भागों में विभक्त हुआ। जो अंग्रेजीकाल में तीन स्तरीय हो गया । अंग्रेजों द्वारा बनाई गई इस त्रिस्तरीय समाज व्यवस्था को वर्तमान राजनीति चार स्तरीय बनाने का प्रयास कर रही है , कुछ समाज समूहों को "ओबीसी" नाम देकर ।
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