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The role of Teacher in 21st century

The role of Teacher in 21 st century In the fast changing world of the early 21 st century concept of public education, school education is also changing. As part of the changes the role of schools and education will also be different both in the educational system and the society. Schools are being charged with a growing range of responsibilities. Their role is seen as central in helping societies adapt to profound social, economic and cultural changes. Their capacity to fulfill these expectations however depends crucially on their own ability to manage change and in particular on whether teachers are able to develop positive and effective strategies to meet the needs of tomorrows schools. Without change, there is a danger that technological and other developments will make schools and teachers seem increasingly irrelevant, especially to younger generation. Teacher professionalism should not obstruct the change but be redefined to become part of it. The professionalism of t...

श्रुति तथा स्मृति की भारतीय अवधारणा

श्रुति तथा स्मृति की भारतीय अवधारणा परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं और हमें उस प्राचीन सनातन सत्य के ही एक नए प्रतिपादन की आवश्यकता होती है। सत्य वही रहता है, केवल उसका आवरण बदल जाता है। दो शब्द हैं-श्रुति और स्मृति। श्रुति का अर्थ है - सुना हुआ सनातन ज्ञान यानि वेद, और विशेषकर उसका उपनिषद् अंश, जो सत्य का विश्लेषण करता है, जबकि स्मृतियाँ समकालीन विधि निषेधों पर चर्चा करती हैं। स्मृति श्रुति की अनुगामी है। भारतीय परम्परा इस बात पर बल देती है कि ”श्रुति स्मृति विरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी-जब श्रुति एवं स्मृति के बीच विरोध होता है तो श्रुति को ही महत्ती प्रमाण माना जाता है।“ सनातन धर्म का अभिप्राय श्रुति से है-ये सार्वभौमिक, सार्वकालिक सत्य हैं। भगवान बुद्ध अपनी शिक्षाओं में कहते हैं-एष धर्मः सनातनः - यह धर्म सनातन है। इसी के साथ आता है युगधर्म-एक ऐसा धर्म, जो इतिहास के एक विशेष युग-काल के लिए, एक विशेष राष्ट्र के लिए है और उसे ही स्मृति कहते हैं। स्मृतियाँ आती हैं और जाती हैं, भारत में न जाने कितने स्मृतियाँ समय-समय पर प्रचलित हुई और त्याग दी गयी परन्तु श्रुति शाश्वत है। पुरानी स्मृति...

सभ्यताओं का अधःपतन एवं बचाव के उपाय

सभ्यताओं का अधःपतन एवं बचाव के उपाय आद्य गुरू शंकराचार्य अपने मनोवैज्ञानिक अध्ययन में सभ्यताओं के अधःपतन की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं - ”अनुष्ठातृणां कामोद्भवात् हीयमान-विवेक-विज्ञान-हेतुकेन- अभिभूयमाने धर्मे, प्रवर्धमाने च अधर्मे।“ - ‘जब कामनाऐं एक सीमा के ऊपर चली जाती हैं, तब समाज में अनेक बुराईयाँ प्रकट होने लगती हैं तथा विवेक एवं विज्ञान का हृास होने लगता है, धर्म अभिभूत हो जाता है तथा अधर्म बढ़ जाता है।’ पश्चिम के अनेकों विचारकों जैसे स्पेंगलर, अर्नाल्ड टॉयन्बी द्वारा लिखे ग्रन्थों में एक धारणा स्पष्ट दिखती है कि, संस्कृति मानव समाज का एक सक्रिय पहलू है और जब यह दुर्बल होगी, तब सभ्यता का अधःपतन होगा। जब लोग ज्यादा सुख-सुविधा चाहने लगते हैं तो इन्द्रिय तंत्र उत्तेजित हो जाता है, जरूरतें बढ़ जाती हैं एवं सभ्यता का अधःपतन प्रारम्भ हो जाता है। जब हम कठोर परिश्रम करते हैं, तब हमें दर्शन की भाषा में becoming (हो रहे) अर्थात् संस्कृति की अवस्था में कहा जाता है, जब कोई become(हो चुका) है, तब उसे सभ्यता कहते हैं और वह अधःपतन की शुरूआत है। समस्त सुख सुविधाओं के उपलब्ध होने के कारण वहाँ प...

ब्राह्मणत्व-मानवीय विकास का लक्ष्य

ब्राह्मणत्व-मानवीय विकास का लक्ष्य भारत में मानवीय विकास एक मूलभूत विचार है, जिसमें व्यक्ति तमस् से रजस् और रजस् से सत्व में विकसित होता है। पूर्ण सत्व में प्रतिष्ठित हो जाने पर व्यक्ति अत्यन्त विकसित और अपने भीतर दिव्यता अभिव्यक्त करता हुआ एक विशिष्ट श्रेणी का हो जाता है। भारत में यही मानवीय विकास का लक्ष्य है। भारत का विश्वास है कि जिस समाज में ऐसे सात्विक, आध्यात्मिक, विकसित तथा अपने अन्दर के देवत्व को अभिव्यक्त करने वालों की संख्या सर्वाधिक होगी, वही समाज सर्वाधिक उन्नत होगा। मूलभूत वेदान्तिक समझ के अनुसार ऐसे व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहते हैं, न कि वर्तमान समय में दोषपूर्ण जातिप्रथा के संदर्भ में आने वाले व्यक्ति को। ‘ब्राह्ममण’ शब्द की सबसे प्राचीन परिभाषा हमें 4000 वर्ष पूर्व के बृहदारण्यक उपनिषद (3.8.10) में प्राप्त होती है- ”यो वा एतदक्षरं गार्गी अविदित्वा अस्ताम् लोकात् जैति, स कृपणो, अथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वा अस्ताम् लोकात् प्रैति, स ब्राह्मणः - हे गार्गी, जो व्यक्ति इस अक्षर (ब्रह्म) को जाने बिना ही इस लोक से चला जाता है वह कृपण या दीन है परन्तु जो इस अक्षर (...

अभ्युदय और निःश्रेयस

अभ्युदय और निःश्रेयस पूज्य आदिगुरू शंकराचार्य जी कहते हैं-”प्राणिनाम् साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस“ हेतु- ‘प्रवृत्ति व निवृत्ति’ एक ऐसा जीवन दर्शन जो कर्म तथा ध्यान के द्वारा सामाजिक हित तथा आध्यात्मिक उन्नति का सामन्जस्य कर सके। अभ्युदय शब्द में ध्यान देने की बात है कि अभि के बाद उदय है। ‘अभि’ का अर्थ है-एक साथ, अकेले नहीं, इसका तात्पर्य है कि सम्मिलित उद्यम-सामूहिकता के बिना कोई भी सामाजिक-आर्थिक विकास संभव नहीं है। पिछली कुछ शताब्दियों से भारतवर्ष के समाज ने इस सामूहिक भाव को ठीक से आत्मसात नहीं किया-आज हमें इस पाठ को सीखने की आवश्यकता है। आज हमें अपने जीवन तथा कार्य में तीन मूल्य अपनाने ही होंगे-कठोर परिश्रम, कार्यकुशलता, सामूहिकता। हम लोग एक दूर स्थित ईश्वर या किसी मंदिर की देवमूर्ति के साथ अपने को जोड़ने में अत्यधिक रूचि लेते रहे हैं और अपने पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति के साथ नहीं-यह बदलाव ही अभ्युदय लाएगा। इसके बाद ही निःश्रेयस आता है। आज अनेकों जगह सब प्रकार की समृद्धि प्राप्त करने के पश्चात् भी मन की शांति नहीं दिख रही-कारण क्या है ? जीवन तनावों से परिपूर्ण क्यों है ? इसलिए कि ...
मानव जीवन के दो मार्ग-प्रवृत्ति और निवृत्ति आदि गुरू शंकराचार्य कहते हैं-भगवान ने इस संसार की सृष्टि करने के बाद इसके स्थिरता की ईच्छा से सर्वप्रथम मरीचि आदि प्रजापतियों को पैदा किया तथा उनसे वेदों में कथित प्रवृत्ति या कर्मकाण्ड का धर्म ग्रहण कराया और उनसे अलग सनक , सनन्दन आदि को उत्पन्न करके उन्हें ज्ञान वैराग्य रूप निवृत्ति या अन्तर्मुखी ध्यान आदि का धर्म ग्रहण कराया। ” द्विविधो हि वेदोक्त धर्मः-प्रवृत्तिलक्ष्णो निवृत्तिलक्षणश्च , जगतः स्थिति-कारणम् प्राणिनाम् साक्षात् अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः- वेदों में बताया गया धर्म दो प्रकार का है- प्रवृत्ति या बाह्य क्रिया और निवृत्ति अर्थात् आन्तरिक ध्यान , जिसका उद्देश्य जगत की स्थिरता है और जो समस्त प्राणियों के अभ्युदय या सामाजिक आर्थिक कल्याण तथा निःश्रेयस या आध्यात्मिक मुक्ति का कारण है। “ यानि मनुष्य के कल्याण के लिए कर्म तथा ध्यान दोनों आवश्यक है। यदि इसमें से केवल एक ही होगा तो व्यक्तिगत या सामाजिक स्वास्थय ठीक नहीं रहेगा। प्रवृत्ति के द्वारा हम अपनी अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक प्रणाली को सुधारकर एक कल्याणकारी समाज की स्थापना कर ...

तपस्या का तात्पर्य व महत्व

 तपस्या का तात्पर्य व महत्व जहाँ कहीं ज्ञान के लिए सच्ची प्यास है, वहाँ कोई मार्ग की थोड़ी असुविधाओं की परवाह नहीं करेगा। ज्ञान की खोज एक तपस्या है। गीता में भगवान कहते हैं - ‘बहवो ज्ञान तपसा पूता’-अनेक लोग ज्ञान की तपस्या से पवित्र होकर। यदि पूरा देश इस ज्ञान तपसा की भावना से अनुप्राणित हो जाए, तो हमारे राष्ट्र जीवन में अद्भुत प्रगति होगी। आदिगुरू शंकराचार्य महाभारत के एक श्लोक को उद्घृत करते हुए ‘तपस्या’ शब्द की परिभाषा करते हैं - ‘मनसश्च् इन्द्रियाणां च एकाग्य्रम् हि परम् तपः’-मन तथा इन्द्रियों की शक्तियों को एकाग्र करना ही परम तप है। आधुनिक वैज्ञानिक भी यही करते हैं-वे अपने मनों को वैज्ञानिक पद्धतियों व दृष्टिकोण में प्रशिक्षित कर प्रकृति के अन्तर में प्रवेश करने में सक्षम होकर युगों से छिपे हुए उसके रहस्यों को उजागर करते हैं | हमारे सभी विद्यार्थियों को स्कूल/कॉलेज में प्रवेश लेते समय तपस की यह धारणा सामने रखनी चाहिए। हमारी संस्कृति में तपस् व स्वाध्याय एक साथ चलते हैं। स्वाध्याय का अर्थ है-अध्ययन। महर्षि वाल्मिकी जी द्वारा रचित रामायण इन शब्दों के साथ...