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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते इस संसार में ज्ञान के समान पवित्रता प्रदान करने वाला कुछ भी नहीं है। हम अपने शरीर व कपड़ों को जल व साबुन से धोकर स्वच्छ करते हैं, यह तो केवल बाह्य शरीर की साफ सफाई है। मन व बुद्धि की स्वच्छता हेतु, पवित्रता तो ज्ञान यानि सत्य के ज्ञान से ही आ सकती है। अतः इस ज्ञान की अग्नि को अपने अंदर सदैव प्रज्जवलित करके रखना चाहिए तथा इसकी प्रखरता तीव्र से तीव्रतर करते हुए सत्य का अन्वेषण करने का प्रयास करते रहना आवश्यक है। जिसके अंदर ज्ञान की यह अग्नि जितनी मात्रा में प्रज्जवलित होगी, वह उतना ही पीड़ा, तनाव व दबाव को सहन करने में समर्थ होगा। इस प्रकार जीवन को सफलतापूर्वक व्यवहार में लाने की क्षमता ज्ञान की अग्नि पर निर्भर करती है जो हमने अपने हृदय में प्रज्जवलित कर रखी है। ज्ञान की अग्नि प्रज्जवलित कराना, यह एक अत्यन्त श्रेष्ठ विचार है। वह ज्ञान जो हमें शिक्षा के द्वारा मिलता है वह केवल पुस्तकीय होने के लिये नहीं है, अपितु वह ज्ञान समन्वित चरित्र के रूप में झलकना चाहिए। ‘न हि ज्ञानेन सदृशं’, जब मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी, तब  उन्होंने इस वाक्य ...

तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रष्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्षिनः।। (4.34

तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रष्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्षिनः।। (4.34) ज्ञानियों को दण्डवत् प्रणाम करते हुए, बार-बार प्रश्न करते हुए और उनकी सेवा करते हुए उस सर्वोच्च सत्य को जानो, जिन्होंने उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, वे तुम्हें इस ज्ञान का उपदेश देंगे। ज्ञान की उपलब्धि प्राप्त करने के लिए एक गुरू यानि योग्य सक्षम शिक्षक के पास जाना चाहिए, उसे जानना, समझना चाहिए। भगवान कहते हैं उसके पास जाकर उसे प्रणाम करें, प्रणिपात यानि प्रणाम करना, तत्पश्चात, परिप्रश्नेन यानि गुरू से व स्वयं की बुद्धि से, दोनों से निरन्तर प्रश्न करते हुए ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करना चाहिये। प्रश्न करना व उसका उत्तर ढूँढने का प्रयास करना, यह ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है। केवल एक बार प्रश्न करना पर्याप्त नहीं, भगवान कहते हैं, परिप्रश्नेन अर्थात् निरन्तर प्रश्न करना-अनुभव के आधार पर धीरे-धीरे प्रश्नों का स्तर गहरा व गंभीर होते जाना चाहिए, सतही प्रश्न नहीं, उसमें हमारी उत्तर प्राप्त करने की तड़प नहीं दिखती है। यह सब करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं, सेवया, अर्थात् गुरू की सेवा करना -...

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रहैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।। (4.24)

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रहैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।। (4.24) अर्पण की प्रक्रिया ब्रह्म है, अर्पित किया गया सामग्री घृत आदि ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही ब्रह्म की अग्नि में अर्पित किया गया है, इसके द्वारा, जो ब्रह्म कर्म की समाधि में है, उसे केवल ब्रह्म तक ही पहुँचना है। ब्रह्म कर्म समाधि यानि ब्रह्म की भांति कर्म करने वाला, ऐसा व्यक्ति जानता है कि जो कुछ भी वह करता है, वह और कुछ नहीं केवल दिव्य है। यही वेदान्त सत्य है कि इस ब्रह्माण्ड में सर्वदूर केवल ब्रह्म ही है - असीम, अद्वैत शुद्ध चैतन्य - सब उसीकी अलग-अलग रूप में अभिव्यक्ति है।National Geographic पत्रिका (September 1948) में प्रकाशित एक निबन्ध The Sun is the Great Mother में लेखक Thomas R Henry कहते हैं, हम अपने भोजन में और इसके पाचन में भी सूर्य खाते हैं, हम अपने वस्त्रों में सूर्य पहनते हैं, हम सूर्य को अपने कोयले, पेट्रोल आदि में काम में लेते हैं, और इस वाक्य से अन्त करते हुए कि - विशेष रूप से गुँथे हुए हैं जीवन और प्रकाश के धागे। इसी सत्य को हमारे ऋषियों ने समझा है। सूर्य को हम ‘पूष...

कर्मण्यकर्म यः पष्येद् अकर्मणि च कर्म यः

कर्मण्यकर्म यः पष्येद् अकर्मणि च कर्म यः अकर्म में कर्म देखना और कर्म में अकर्म देखना-यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, परन्तु मानवीय अनुभव में यह प्राप्त किया जा सकता है, असंभव नहीं है। चीनी विचारधारा, ताओवाद एवं कन्फूशियन विचार में भी यह सिद्धांत मिलता है, जहाँ वे इसे कहते हैं, ‘कोई काम नहीं’ वास्तविक कार्य है। कार्य, बिल्कुल कोई कार्य नहीं रहता, यह तो प्रश्न कर्तापन के भाव व आसाक्ति का है। जब ये दोनों नहीं रहते तो कार्य खेल हो जाता है, सहज हो जाता है। कार्य का विचार तब आ जाता है जब प्रयास, संघर्ष व तनाव रहता है। जब अनासक्ति व कर्तापन का भाव चला जाता है, तब सारा तनाव भी खतम हो जाता है और कार्य करते हुए भी कभी ऐसा नहीं लगता कि कोई कार्य हो रहा है। उदाहरण एक माँ द्वारा अपने शिशु की परिचर्या, इस कार्य को वह कभी बोझ नहीं मानती-जब इस प्रकार का समर्पण व निश्छल प्रेम होता है तभी कार्य बोझ नहीं लगता तथा कर्म करते हुए भी अकर्म का भाव रहता है। उत्तरोत्तर बढ़ती औद्योगिक सभ्यता ने कार्य को बेगार बना दिया है, जिसके कारण लोग आनन्द को कार्य के बाहर खोजते हैं, इसीलिये इतने सारे अवकाशों की व्यवस्था क...

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागषः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। (4.13)

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागषः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। (4.13) गुण और कर्म की विविधताओं के आधार पर चतुर्वर्ण व्यवस्था मेरे द्वारा बनाई गई थी। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का कर्ता हूँ, तथापि मुझे अकर्ता और अपरिवर्तनशील समझो। चार वर्णों के आधार पर समाज का संगठन-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - प्रत्येक और किसी भी समाज में अपनी रूचि और क्षमता के अनुसार होते हैं - गुण, कर्म, ”उनके गुणों और कर्मों के अनुसार।“ गुणकर्म यह निर्धारित करेगा कि कोई ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य है या शूद्र है। किसी भी परिवार में इनमें से किसी भी प्रकार की संतानें हो सकती हैं। विभिन्न व्यक्ति विभिन्न कर्म या धंधा अपने मानस के झुकाव के अनुसार, अपने गुणों के अनुसार करते हैं। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता का द्योतक है। आप जो भी व्यवसाय चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं। समाज को संगठन की आवश्यकता होती है - समूहों में संगठन - और ये संगठन हमने भारत में बनाए - पहले श्रम, फिर व्यापार, कृषि, उद्योग, फिर हम प्रशासन - सेना व राजनीति तथा अंत में उच्च बौद्धिक व आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने वाले। लेकिन भा...

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम्। मम् वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (4.11)

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तां तथैव भजाम्यहम्। मम् वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (4.11) स्त्री और पुरूष जिस किसी प्रकार से मेरी पूजा करते हैं, उसी प्रकार से मैं उनकी इच्छाऐं पूरी करता हूँ, यह मेरा मार्ग है, जिस पर, हे अर्जुन, सभी प्रकारों से लोग चलते हैं। जो भी मार्ग कोई स्त्री/पुरूष चुनता है, वे सब मार्ग मेरी ओर ही आते हैं, मार्ग अनेक लेकिन मंजिल एक-इसी पर बल दिया है - समन्वय का अद्भुत दृष्टिकोण है। भगवान कह रहे हैं कि मुझ तक पहुँचने का कोई एक निश्चित मार्ग नहीं है, कोई भी किसी भी रास्ते से आकर मुझ तक पहुँच सकता है। यह समन्वय का भाव भारतीय संस्कृति का अत्यन्त महान योगदान है, जो किसी प्रकार की व्यवहारिकता या नीति के कारण नहीं आया, अपितु एक व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि व दार्शनिक समझ से आया है। कोई एक निश्चित मानक मार्ग नहीं, इस प्रकार का कोई धर्म-मत-पंथ सम्बन्धी मानक नहीं, यही विचार ऋगवेद के इस कथन में भी प्रकट होता है - ”एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति-सत्य एक है, विद्वान लोग इसे अनेक नामों से पुकारते हैं।“ ‘यतो मत, तथो पथ’ - जितने मत होंगे, उतने ही पथ/सम्प्रदाय होंगे। अतः समन्वय,...

ज्ञानतपसा पूता

ज्ञानतपसा पूता ‘ज्ञानतपसा पूता’ - यानि ज्ञान के तपस् द्वारा शुद्धिकृत होकर। ज्ञान - यानि आध्यात्मिक ज्ञान को तपस् की श्रेणी में रखा गया है। तपस् - यानि साधना, ज्ञान की साधना। इस ज्ञान की साधना द्वारा अपने मन, व्यक्तित्व का शुद्धिकरण करना। इस ज्ञानतपस् के लिए स्व अनुशासन, आत्मसंयम एक आवश्यक तत्व है। जब शिक्षा से ज्ञानार्जन की प्रक्रिया से तपस् निकल जाता है तो शिक्षा सस्ती व हल्की हो जाती है। आज समाज में यही सस्ती शिक्षा का प्रचलन सर्वदूर दिखता है। शिक्षा से ज्ञानतपस् का भाव पूर्णतः समाप्त हो गया लगता है। मानव मन को ज्ञान की खोज के स्तर तक उठाया जाना चाहिए और जो सीखा है उसे पचाकर ग्रहण करना चाहिए, यही तपस् है। यह एक अत्यन्त कठिन साधना है-ज्ञान को पचाना। ज्ञानतपस् का दूसरा पहलू है - क्रोध, वासनाऐं, घृणा, भय आदि की भावुकताओं को ज्ञान की अग्नि में जलाना-इसी से चरित्र निर्माण होता है। अतः इस मानव मन और शरीर को एक परिशुद्धिकरण का कारखाना बनाना होगा, मनोवैज्ञानिक परिशुद्धिकरण का कारखाना। इसी से सभी नीतिगत व मानवीय मूल्य-प्रेम, करूणा, अभय, सेवा का भाव बाहर आएगा। इस सभी मूल्यों का स्त्रोत अ...