न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते इस संसार में ज्ञान के समान पवित्रता प्रदान करने वाला कुछ भी नहीं है। हम अपने शरीर व कपड़ों को जल व साबुन से धोकर स्वच्छ करते हैं, यह तो केवल बाह्य शरीर की साफ सफाई है। मन व बुद्धि की स्वच्छता हेतु, पवित्रता तो ज्ञान यानि सत्य के ज्ञान से ही आ सकती है। अतः इस ज्ञान की अग्नि को अपने अंदर सदैव प्रज्जवलित करके रखना चाहिए तथा इसकी प्रखरता तीव्र से तीव्रतर करते हुए सत्य का अन्वेषण करने का प्रयास करते रहना आवश्यक है। जिसके अंदर ज्ञान की यह अग्नि जितनी मात्रा में प्रज्जवलित होगी, वह उतना ही पीड़ा, तनाव व दबाव को सहन करने में समर्थ होगा। इस प्रकार जीवन को सफलतापूर्वक व्यवहार में लाने की क्षमता ज्ञान की अग्नि पर निर्भर करती है जो हमने अपने हृदय में प्रज्जवलित कर रखी है। ज्ञान की अग्नि प्रज्जवलित कराना, यह एक अत्यन्त श्रेष्ठ विचार है। वह ज्ञान जो हमें शिक्षा के द्वारा मिलता है वह केवल पुस्तकीय होने के लिये नहीं है, अपितु वह ज्ञान समन्वित चरित्र के रूप में झलकना चाहिए। ‘न हि ज्ञानेन सदृशं’, जब मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी, तब उन्होंने इस वाक्य ...